SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० प्रवचनसार अनुशीलन विदा लेता है; माता-पिता आदि गुरुजनों (बड़े-बूढ़ों) से और स्त्रीपुत्रादि से अपने को छुड़ाता है और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है। अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं ह्र वह बन्धुवर्ग से इसप्रकार पूछता है, विदा लेता है कि अहो ! इस पुरुष के शरीर के बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ ! इस पुरुष का आत्मा किंचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है ह्न इसप्रकार तुम निश्चय से जानो। इसलिए मैं तुमसे पूछकर विदा लेता हूँ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ह्र ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि बन्धु के पास जा रहा है। अहो ! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता) के आत्मा ! अहो ! इस पुरुष के शरीर की जननी (माता) के आत्मा ! इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है ह्र ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिए तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ह्र ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी जनक-जननी के पास जा रहा है। अहो ! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा ! तुम इस पुरुष आत्मा को रमण नहीं कराते ह्र ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिए तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है। अहो ! इस पुरुष के शरीर के पुत्र के आत्मा ! तू इस पुरुष के आत्मा का जन्य (उत्पन्न किया गया पुत्र) नहीं है ह्र ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिए तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ह्न ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि-जन्य (पुत्र) के पास जा रहा है। इसप्रकार यह दीक्षार्थी आत्मा, माता-पिता आदि बड़े-बूढों से और स्त्री-पुत्रादि से स्वयं को छुड़ाता है। जिसप्रकार बन्धुवर्ग से विदा ली और माता-पिता स्त्री-पुत्रादि से अपने को छुड़ाया; उसीप्रकार अहो ! काल, विनय, उपधान, बहुमान, अह्निव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार ! मैं निश्चय से यह गाथा २०२-२०३ ११ जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता । अहो ! नि:शंकितत्व, निकांक्षित्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनारूप दर्शनाचार ! मैं निश्चय से यह जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता । अहो ! मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत, पंचमहाव्रतसहित कायवचन- मनगुप्ति और ईर्ष्या-भाषा- एषणा- आदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापनसमिति रूप चारित्राचार! मैं निश्चय से यह जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता। अहो ! अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गरूप तपाचार! मैं निश्चय से यह जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता । अहो समस्त इतर (वीर्याचार के अतिरिक्त अन्य) आचार में प्रवृत्ति करानेवाली स्वशक्ति के अगोपनरूप वीर्याचार ! मैं निश्चय से यह जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता । इसप्रकार यह दीक्षार्थी ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है। इसके बाद वह दीक्षार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इसप्रकार है ह्न आचरण करने और करानेवाले समस्त विभूति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप श्रामण्यपने के कारण जो श्रमण है; ऐसे श्रामण्य के आचरण करने और कराने में प्रवीण होने से जो गुणाढ्य हैं;
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy