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परम ध्यान में लीनता आप कीनी,
न हटते कभी घोर उपसर्ग दीनी ।
सु आतमबली वीर्य की ढाल धारी,
परम गुरु जजूँ अष्ट द्रव्यं सम्हारी ।।५।। ॐ ह्रीं श्री वीर्याचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११४।।
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
तपः अनशनं जो तपें धीर-वीरा,
तजें चारविध भोजनं शक्ति धीरा । कभी मास पक्षं कभी चार त्रय दो,
सु उपवास करते जजूँ आप गुण दो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री अनशनतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११५ ।।
सु ऊनोदरी तप महास्वच्छकारी,
करे नींद आलस्य का नहिं प्रचारी ।
सदा ध्यान की सावधानी सम्हारे,
मैं गुरु को करम घन विदारें ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री अवमौदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११६।। कभी भोजना हेतु पुर में पधारें,
तभी दृढप्रतिज्ञा गुरु आप धारें । यही वृत्ति - परिसंख्यान तप आशहारी,
जूँ जिन गुरु जो कि धारें विचारी ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्री वृत्तिपरिसंख्यानतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। ११७ ।। कभी छह रसों को कभी चार त्रय दो,
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तजें राग वर्जन गुरु लोभजित हो धरें लक्ष्य आतम सुधा सार पीते,
जूँ मैं गुरु को सभी दोष बीते ।। ९ ।।
ॐ ह्रीं श्री रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। ११८ ।।
कभी पर्वतों पर गुहा वन मशाने,
धरें ध्यान एकांत में एकताने ।
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