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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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धरें आसना दृढ अचल शांतिधारी,
जूँ मैं गुरु को भरम तापहारी ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री विविक्तशय्यासनतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। ११९ ।।
ऋतु उष्ण पर्वत शरद्रितु नदी तट,
अधोवृक्ष बरसात में याकि चउपथ ।
करें योग अनुपम सहें कष्ट भारी,
जूँ मैं गुरु को सुसम दम पुकारी ।। ११ ।। ॐ ह्रीं श्री कायक्लेशतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२० ।।
करें दोष आलोचना गुरु सकाशे,
भरैं दण्ड रुचिसों गुरु सो प्रकाशे । सुतप अन्तरङ्ग प्रथम शुद्ध कारी,
जूँ मैं गुरु को स्व आतम विहारी ।। १२ ।। ॐ ह्रीं श्री प्रायश्चित्ततपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२१ ।।
दरश ज्ञान चारित्र आदि गुणों में,
परम पदमयी पाँच परमेष्ठियों में । विनय तप धरें शल्यत्रय को निवारें,
हमें रक्ष श्री गुरु जजूँ अर्घ धारें ।। १३ ।। ॐ ह्रीं श्री विनयतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२२ ।। यती संघ दस विध यदि रोग धारे,
तथा खेद पीड़ित मुनी हों बिचारे ।
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करें सेव उनकी दया चित्त ठाने,
जजूँ मैं गुरु को भरम ताप हाने ।। १४ ।।
ॐ ह्रीं श्री वैय्यावृत्तितपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२३ ।।
करें बोध निजतत्त्व परतत्त्व रुचि से,
प्रकाशें परमतत्त्व जग को स्वमति से ।
यही तप अमोलक करम को खिपावे, जूँ मैं गुरु को कुबोधं नशावे ।।१५।। ॐ ह्रीं श्री स्वाध्यायतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२५||