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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
छत्तीस गुणयुक्त आचार्य परमेष्ठी के लिए अर्घ्य
( भुजंगप्रयात ) हटाये अनन्तानुबंधी कषायें,
करण से हैं मिथ्यात तीनों खपाये। अतीचार पच्चीस को हैं बचाये,
सु आचार दर्शन परम गुरु धराये ।।१।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।११०।। न संशय विपर्यय न है मोह कोई,
परम ज्ञान निर्मल धरे तत्त्व जोई। स्व-पर ज्ञान से भेदविज्ञान धारे,
सु आचार ज्ञानं स्व-अनुभव सम्हारे ।।२।। ॐ ह्रीं श्री ज्ञानाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ॥१११।। सुचारित्र व्यवहार निश्चय सम्हारे,
अहिंसादि पाँचों व्रत शुद्ध धारे। अचल आत्म में शुद्धता सार पाए,
___ जगूं पद गुरु के दरब अष्ट लाए।।३।। ॐ ह्रीं श्री चारित्राचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।११२।। तपें द्वादशों तप अचल ज्ञानधारी,
सहें गुरु परीषह सुसमता प्रचारी। परम आत्मरस पीवते आप ही तें,
भजूं मैं गुरु छूट जाऊँ भवों तें ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री तपाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।११३