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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
पाँच परमेष्ठी, चार मंगल, चार उत्तम व चार शरण
के लिए १७ अर्घ्य
(अडिल्ल) काल अनन्ता भ्रमण करत जग जीव हैं। तिनको भव तें काढि करत शचि जीव हैं।। ऐसे अर्हत् तीर्थनाथ पद ध्याय के।
पूनँ अर्घ्य बनाय सुमन हरषाय के ।। ॐ ह्रीं श्री अनंतभवार्णवभयनिवारक-अनंतगुणस्तुताय अर्हत्परमेष्ठिने अय॑नि. स्वाहा॥१॥
(हरिगीता) कर्मकाष्ठ महान जाले ध्यान अग्नि जलायके। गुण अष्ट लह व्यवहारनय निश्चय अनंत लहायके ।। निज आत्म में थिररूप रहके, सुधा स्वाद लखायके।
सो सिद्ध हैं कृतकृत्य चिन्मय भनूँ मन उमगायके ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टकर्मविनाशकनिजात्मतत्त्वविभासकसिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं नि. स्वाहा ।।२।।
(त्रिभंगी) मुनिगण को पालत आलस टालत आप संभालत परम यती। जिनवाणि सुहानी शिवसुखदानी भविजन मानी धर सुमती ।। दीक्षा के दाता अघ से त्राता समसुखभाजा ज्ञानपती।
शुभ पञ्चाचारा पालत प्यारा हैं आचारज कर्महती ।। ॐ ह्रीं श्री अनवद्यविद्याविद्योतनाय आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।३।।
(त्रोटक) जय पाठक ज्ञान कृपान नमो, भवि जीवन हत अज्ञान नमो। निज आत्म महानिधि धारक हैं, संशय-वन-दाह निवारक हैं।।
ॐ ह्रीं श्री द्वादशांगपरिपूरण-श्रुतपाठनोद्यत-बुद्धिविभवधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥