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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
(द्रुतविलंबित) सुभग तप द्वादश कर्तार हैं, ध्यान सार महान प्रचार हैं। मुकति वास अचल यति साधते, सुख सु आतमजन्य सम्हारते ।। ॐ ह्रीं श्री घोरतपोऽभिसंस्कृतध्यानस्वाध्यायनिरतसाधुपरमेष्ठिने अर्घ्य नि. स्वाहा ।।५।।
(मालिनी) अरि हनन सु अरिहन् पूज्य अर्हन् बताये। मं पाप गलन हेतु मंगलं ध्यान लाए।। मंगं सुखकारण मंगलीकं जताए।
ध्यानी छबि तेरी देखते दुःख नशाये ।। ॐ ह्रीं श्री अर्हत्परमेष्ठिमङ्गलाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।६।।
(चौपाई) जय जय सिद्ध परम सुखकारी । तुम गुण सुमरत कर्म निवारी। विघ्नसमूह सहज हरतारे। मंगलमय मंगल करतारे ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धमङ्गलाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।७।।
(शार्दूलविक्रीडित) राग-द्वेष महान सर्प शमने शम मंत्रधारी यती। शत्रु-मित्र समान भाव करके भवताप हारी यती ।। मंगल सार महानकार अघहर सत्त्वानुकम्पी यती। संयम पूर्ण प्रकार साध तप को संसारहारी यती ।। ॐ ह्रीं श्री साधुमङ्गलाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।८।।
(शङ्कर ) जिनधर्म है सुखकार जग में धरत भवभयवंत । स्वर्ग-मोक्ष सुद्वार अनुपम धरे सो जयवन्त ।। सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्र लक्षण भजत जग में संत ।
सर्वज्ञ रागविहीन वक्ता हैं प्रमाण महन्त ।। . ॐ ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्तधर्ममङ्गलाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।९।।
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