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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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शुद्धात्मस्वरूप दिखावैं, शिवमार्ग सहज ही बतावैं । गुण चिंतन कर निज शीश धरें चरणन में ।। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति - मग में || ६ ||
निर्ग्रन्थ भावना
निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी । बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी । । टेक ॥।
करके विराधन तत्त्व का, बहु दुःख उठाया । आराधना का यह समय, अति पुण्य से पाया ।। मिथ्या प्रपंचों में उलझ अब, क्यों करूँ देरी ? निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी ।। जब से लिया चैतन्य के, आनंद का आस्वाद । रमणीक भोग भी लगें, मुझको सभी निःस्वाद ।। ध्रुवधाम की ही ओर दौड़े, परिणति मेरी | निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी ।। पर में नहीं कर्त्तव्य मुझको, भासता कुछ भी । अधिकार भी दीखे नहीं, जग में अरे र कुछ भी ॥ निज अंतरंग में ही दिखे, प्रभुता मुझे मेरी । निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी ।।
क्षण-क्षण कषायों के प्रसंग ही बनें जहाँ । मोही जनों के संग में, सुख शान्ति हो कहाँ ।। जग - संगति से तो बढ़े, दुखमय भ्रमण फेरी । निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी ।।
अब तो रहूँ निर्जन वनों में, गुरुजनों के संग । शुद्धात्मा के ध्यानमय हो, परिणति असंग ।।
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