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________________ 192 प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि n घोर परिषह उपसर्गों को, सहज ही जीतनहारे हैं। आत्मध्यान की अग्निमाँहि जो सकल कर्म - मल जारे हैं ।। २ । सार्धं सारभूत शुद्धातम, रत्नत्रय निधि धारे हैं । तृप्त स्वयं में तुष्ट स्वयं में, काम-सुभट संहारे हैं ।। ३ ।। सहज होंय गुण मूल अट्ठाईस, नग्न रूप अविकारे हैं । वनवासी व्यवहार कहत हैं, निज में निवसनहारे हैं ।।४ ॥ निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु... निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु अलौकिक जग में। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति-मग में ।। टेक ॥। अन्तर्दृष्टि प्रगटाई निज रूप लख्यो सुखदाई । बाहर से हुए उदास सहज अंतरंग में ॥ निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति - मग में ।। १ ।। जग में कुछ सार न पाया, अन्तर पुरुषार्थ बढ़ाया । तज सकल परिग्रह भोग बसै जा वन में ।। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति - मग में ।। २ ।। निर्दोष अट्ठाईस गुण हैं, देखो निज माँहिं मगन हैं । कुछ ख्याति लाभ पूजादि चाह नहिं मन में ।। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति - मग में ।। ३ ।। जिन तीन चौकड़ी टूटी, ममता की बेड़ी छूटी। अद्भुत समता वर्ते जिनकी परिणति में ।। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति - मग में || ४ || निस्पृह आतम आराधें, रत्नत्रय पूर्णता साधें । निष्कम्प रहें उपसर्ग और परीषह में ।। निर्भय स्वाधीन विचरते मुक्ति-मग में ।। ५ । U
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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