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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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मरण होय तत्काल यदि, कहें साधु मर जाव। ।।
तदपि क्रोध करते नहीं, पूजॅ बल दरशाव ।।३९।। ॐ ह्रीं श्री आशीविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३७।।
दृष्टि क्रूर देखें यदी, तुर्त काल वश थाय । निज पर सुखकारी यती, पूनँ शक्ति धराय ।।४०।। ॐ ह्रीं श्री दृष्टिविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३८।। नीरस भोजन कर धरे, क्षीर समान बनाय ।
क्षीरस्रावी ऋद्धि धरे, जनूं साधु हरषाय ।।४१।। ॐ ह्रीं श्री क्षीरश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३९।।
वचन जास पीड़ा हरे, कट भोजन मधराय। मधुस्रावी वर ऋद्धि धर, जजूं साधु उमगाय ।।४२।। ॐ ह्रीं श्री मधुश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४०।। रुक्ष अन्न कर में धरे, घृत रस पूरण थाय ।
घृतश्रावी वर ऋद्धि धर, जजूं साधु सुख पाय ।।४३।। ॐ ह्रीं श्री घृतश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४१।। रुक्ष कटुक भोजन धरे, अमृत सम हो जाय।
अमृत सम वच तृप्ति कर, जजूंसाधु भय जाय ।।४४।। ॐ ह्रीं श्री अमृतश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४२।।
दत्त साधु भोजन बचे, चक्री कटक जिमाय ।
तदपि क्षीण होवे नहीं, जजू साधु हरषाय ।।४५।। ॐ ह्रीं श्री अक्षीणमहानसऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४३।।
सकुड़े थानक में यती, करते वृष उपदेश ।
बैठे कोटिक नर पशू, जजूं साधु परमेश ।।४६।। ॐ हीं श्री अक्षीणमहालयऋद्धिधारकेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४४।।