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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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अंगुलि आदि स्पर्शते, श्वास पवन छू जाय। ।
रोग सकल पीड़ा टले, जजूं साधु सुखदाय ।।३१।। ॐ ह्रीं श्री आमाँषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२९।। मुखते उपजे राल जिन, शमन रोग करतार ।
परम तपस्वी वैद्य शुभ, जजूं साधु अविकार ।।३२।। ॐ ह्रीं श्री श्वेलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३०।। तन पसेव सह रज उड़े, रोगीजन छू जाय ।
रोग सकल नाशे सही, जजूं साधु उमगाय ।।३३॥ ॐ ह्रीं श्री जलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयँ निर्वपामीति स्वाहा।।२३१।। नाक आँख कर्णादि मल, तन स्पर्श हो जाय।
रोगी रोग शमन करें, जजूं साधु सुख पाय ।।३४॥ ॐ ह्रीं श्री मलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३२।। मल निपात पर्शी पवन, रजकण अंग लगाय।
रोग सकल क्षण में हरे, जनूं साधु अघ जाय ।।३५॥ ॐ ह्रीं श्री विडौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३३।। तन नख केश मलादि बहु, अंग लगी पवनादि।
हरै मृगी सूलादि बहु, जजूं साधु भववादि ।।३६।। ॐ ह्रीं श्री सौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३४।। विष मिश्रित आहार भी, जहं निर्विष हो जाय।
चरण धरें भू अमृती, जजूं साधु दुःख जाय ।।३७।। ॐ ह्रीं श्री आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३५।।
पड़त दृष्टि जिनकी जहाँ, सर्वहिं विष टल जाय।
आत्म रमी शुचि संयमी, पूनँ ध्यान लगाय ।।३८।। ॐ ह्रीं श्री दृष्ट्यविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३६।।
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