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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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या प्रमाण ऋद्धीन को, पावन तप परभाव।
चाह कछू राखत नहीं, जजें साधु धर भाव ।।४७।। ॐ ह्रीं श्री सकलऋद्धिसंपन्नसर्वमुनिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४५।।
चौदासे त्रेपन मुनी, गणी अर्थ चौबीस ।
जजू द्रव्य आठों लिये, नाय-नाय निज शीस ।।४८।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतितीर्थेश्वराग्रिमसमावर्ति-त्रिपंचाशच्चतुर्दशशतगणधरमुनिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४६।।
अड़तालीश हजार अर, उन्निस लक्ष प्रमान।
तीर्थंकर चौबीस यति, संघ यजूं धरि ध्यान ।। ॐ ह्रीं श्री वर्तमानचतुर्विंशतितीर्थंकरसभासंस्थायि एकोनत्रिंशल्लक्षाष्टचत्वारिंशत्सहस्रप्रमितमुनीन्द्रेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४६।। चार कोनों में स्थापित जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, जिनशास्त्र
व जिनधर्म के लिए अर्घ्य नौसे पच्चिस कोटि लख, त्रैपन अट्ठावीस।
सहस ऊन कर बावना, बिंब अकृत नम शीस ।। ॐ ह्रीं श्री नवशतपंचविंशतिकोटित्रिपंचाशल्लक्षसप्तविंशतिसहस्रनवशताष्ट - चत्त्वारिंशत्-प्रमित-अकृत्रिमजिनबिम्बेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४७।।
आठ कोड़ लख छप्पने, सत्तानवे हजार।
चारि शतक इक असी जिन, चैत्य अकृत भज सार ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतैकाशीतिसंख्याकृत्रिमजिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२४८।।
(चौपाई) जय मिथ्यात्व नाग को सिंहा, एक पक्ष जल धर को मेहा।
नरक कूपते रक्षक जाना, भज जिन आगम तत्त्व खजाना।। ।। ॐ ह्रीं श्री स्याद्वादांकितजिनागमाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।२४९।।