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पहिले ही माता की सेवा करने आ गई हों, जिसने सम्पूर्ण जगत को कर्मभूमि अरिभ में सबप्रकार शिक्षित किया हो; उसे दीक्षा लेने के बाद आहार का भी योग न मिला। सातिशय पुण्य के धनी और धर्मात्मा भावलिंगी सच्चे सन्त होने पर भी उस समय उनके पल्ले में इतना भी पुण्य नहीं था कि विधिपूर्वक दो रोटियाँ ही उपलब्ध हो जाती ।
पुण्य की कमी थी, ऐसी कोई बात नहीं थी। सत्ता में तो तीर्थंकर प्रकृति पड़ी थी और निरन्तर वंध भी रही थी, पर सत्ता में पड़ा कर्म कार्यकारी नहीं होता । जबतक कर्म उदय में न आवे, तबतक वह कार्य की उत्पत्ति में निमित्त भी नहीं होता और तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें गुणस्थान में होता है, अत: उसके पहले वह किसी कार्य में निमित्त भी नहीं हो सकती ।
अन्य प्रकार के पुण्य की भी कोई कमी नहीं थी, अन्यथा लोग उन्हें अनेक प्रकार की वस्तुयें क्यों भेंट करने को उत्सुक होते, पर निरन्तराय आहार की उपलब्धि का न तो पुण्योदय ही था और न उस समय की पर्याय की योग्यता ही ऐसी थी । पाँचों ही समवाय आहार नहीं मिलने के ही थे ।
१३ माह ९ दिन बाद हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हुआ, जिसमें उन्हें मुनियों को आहार देने की विधि का स्मरण हो आया। जब ऋषभदेव का जीव राजा वज्रजंध था और राजा श्रेयांस का जीव वज्रजंध की पत्नी श्रीमती था । उस समय उन दोनों ने मिलकर अपने ही युगल पुत्रों को, जो मुनिराज हो गये थे, आहार दिया था। वह दृश्य उनकी स्मृति पटल पर आ गया। इससे उन्हें मुनिराजों को आहार देने की विधि पूर्णत: स्पष्ट हो गई और उन्होंने मुनिराज ऋषभदेव को इक्षुरस का आहार दिया।
जिस दिन मुनिराज ऋषभदेव को सर्वप्रथम आहार मिला, वह दिन अक्षय तृतीया का शुभ दिन था । इसीकारण अक्षय तृतीया का महापर्व चल पड़ा। यही कारण है कि यदि ऋषभदेव को धर्मतीर्थ का प्रवर्तक माना जाता है तो राजा श्रेयांस को दानतीर्थ का प्रवर्तक ।