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पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट द्वारा संचालित वीतराग - विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड, जिसमें प्रतिवर्ष लगभग बीस हजार छात्र-छात्राएँ धार्मिक परीक्षा देते हैं, डॉ. साहब ही चला रहे हैं। उसकी पाठ्य-पुस्तकें नवीन शैली में प्राय: आपने ही तैयार की हैं। उन्हें पढ़ाने की शैली में प्रशिक्षित करने के लिए ग्रीष्मकालीन अवकाश में प्रतिवर्ष प्रशिक्षण शिविर भी डॉक्टर साहब के निर्देशन में आयोजित किये जाते हैं, जिनमें वे स्वयं अध्यापकों को प्रशिक्षित करते हैं।
अबतक 40 शिविरों में 7855 अध्यापक प्रशिक्षित हो चुके हैं। तत्संबधी 'प्रशिक्षण निर्देशिका' भी आपने लिखीं है।
पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट में धार्मिक साहित्य का बिक्री विभाग भी चलता है, जिसकी बिक्री अब 23 लाख 13 हजार रुपये प्रतिवर्ष तक पहुँच गई है।
भारतवर्षीय वीतराग-विज्ञान पाठशाला समिति के भी आप महामंत्री हैं। इस पाठशाला समिति के प्रयत्नों से देश में 328 वीतराग-विज्ञान पाठशालाएँ चल रहीं हैं, जिनमें हजारों छात्र धार्मिक शिक्षा प्राप्त करते हैं।
इनके अतिरिक्त निरन्तर होनेवाले आपके प्रभावशाली प्रवचनों से जयपुर ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष लाभ उठाता है, जिससे तत्त्वप्रचार को अभूतपूर्व गति मिलती है। हर्ष की बात है कि 27 जून, 1984 से 1 अगस्त, 1984 तक पहली बार आपने अमेरिका और यूरोप के प्रमुख नगरों को दौरा किया। वहाँ आपके प्रवचनों से लोग इतने प्रभावित हुए कि तभी से प्रतिवर्ष आपका कार्यक्रम निर्धारित किया जाने लगा। इसप्रकार अबतक आप 24 बार अमेरिका, इंग्लैण्ड, जापान, हांगकांग, कनाडा, जर्मनी, बेल्जियम, स्विटजरलैण्ड, दुबई, आबूधवी, सरजाह, केनिया में जैनधर्म का डंका बजा चुके हैं। आपके कार्यक्रमों से वहाँ अभूतपूर्व धर्मप्रभावना हो रही है ।
पूज्य गुरुदेव श्री के पुण्य-प्रताप से चलनेवाली अन्य गतिविधियों में भी आपका बौद्धिक सहयोग निरन्तर प्राप्त होता रहता है। इन सभी कार्यों और इस कृति की रचना के लिए आपको जितना धन्यवाद दिया जाय कम ही है।
इस कृति को जन-जन तक अल्पमूल्य में उपलब्ध कराने का श्रेय उन दातारों को है, जिनका आर्थिक सहयोग पुस्तक की कीमत कम करने में प्राप्त हुआ है। सभी सहयोगियों का हम हृदय से आभार मानते हैं। साथ ही प्रकाशन विभाग के प्रभारी अखिल बंसल को भी धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने मुद्रण व्यवस्था में सहयोग दिया है।
आप सभी इस कृति के माध्यम से अपने जीवन को सार्थक बनाते हुए मुक्तिपथ पर अग्रसर हों - ऐसी मेरी भावना है। 21 अक्टूबर, 2006, महापर्व दीपावली
- ब्र. यशपाल जैन प्रकाशन मंत्री