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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव ___ शायद आप यह तो जानते ही होंगे कि उस समय बड़े से बड़े अपराध के लिए मात्र तीन ही दण्ड थे - हा, मा और धिक् । यदि किसी से कोई गलती होती थी तो 'हा' कह देने मात्र से वह पानी-पानी हो जाता था। अधिक हुआ तो 'मा' कहा जाता था। 'मा' का अर्थ है कि ऐसा मत करो। इससे भी काम न चला तो 'धिक्' शब्द का प्रयोग किया जाता था। किसी को धिक्' क्या कह दिया मानो फाँसी पर ही चढ़ा दिया। उस समय सभी सहज व सरल वृत्ति के लोग थे। हमें भी यदि आत्मा का उत्थान करना है तो सहज व सरल वृत्ति का बनना होगा।
आज आपकी भी अयोध्या के नागरिक के रूप में प्रतिष्ठा हो चुकी है। अब आप ऐसा अनुभव कीजिए कि आप राजा नाभिराय की प्रजा हैं। यदि आप ऐसा कर सके तो निश्चित रूप से आपके परिणाम कुछ न कुछ कोमल, कुछ न कुछ सरल अवश्य होंगे और आपको इस पंचकल्याणक में सम्मिलित होने का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त होगा।
आशा है आप इस बात पर गंभीरता से विचार करेंगे।
विवेक और अविवेक का खेल जहाँ विवेक है; वहाँ आनन्द है, निर्माण है और जहाँ अविवेक है; वहाँ कलह है, विनाश है। समय तो एक ही होता है; पर जिस समय अविवेकी निरन्तर षड्यन्त्रों में संलग्न रह बहुमूल्य नरभव को यों ही बरबाद कर रहे होते हैं; उसी समय विवेकीजन अमूल्य मानव भव का एक-एक क्षण सत्य के अन्वेषण, रमण एवं प्रतिपादन द्वारा स्व-पर हित में संलग्न रह सार्थक व सफल करते रहते हैं। वे स्वयं तो आनन्दित रहते ही हैं, आसपास के वातावरण को भी आनन्दित कर देते हैं। __इसप्रकार क्षेत्र और काल एक होने पर भी भावों की विभिन्नता आनन्द और क्लेश तथा निर्माण और विध्वंस का कारण बनती है - यह सब विवेक और अविवेक का ही खेल है। - सत्य की खोज, पृष्ठ १९९