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________________ आत्म कथ्य द्रव्यानुयोग का शिरोमणि पंचास्तिकाय परमागम, आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव की अनुपम कृति है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ पर, समयसार व्याख्या नामक अद्भुत टीका लिखी है ।।१।। ह आचार्य जयसेन स्वामी ने समय व्याख्या का समर्थन करते हुये, अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय भी दिया है। कविवर हीरानन्दजी ने हिन्दी आंचलिक भाषा में, काव्य लिखकर हिन्दी भाषी पाठकों पर अनंत उपकार किया है।।२।। परिशीलन का प्रयोजन और विषय प्रस्तुत परिशीलन के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी यह है कि इस कृति में आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित मूल गाथायें, उन गाथाओं का सरल हिन्दी अर्थ तथा मूल गाथाओं का मेरे द्वारा रचित हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है। उसके बाद आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव की टीका का हिन्दी गद्य में स्पष्टीकरण करते हुए कविवर हीरानन्दजी के द्वारा हिन्दी भाषा में रचित कतिपय छन्द दिये हैं तथा आवश्यकतानुसार उनका गद्यभाषा में खुलासा किया है। ज्ञातव्य है कि कवि हीरानन्द की भाषा बहुत पुरानी हिन्दी है, उसमें मात्राओं का प्रयोग पुरानी भाषा के अनुसार हैं जैसे में की जगह मैं का प्रयोग है। अतः पाठक ध्यान से अर्थ करें। सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के द्वारा किये गये उन प्रवचनों का सार, जो कि ११-२-१९५२ से लेकर १६-६-१९५२ तक चार महीने के प्रवचन प्रसाद' के हस्तलिखित अंकों में प्रकाशित हुए हैं, उन सबका सारांश लिखकर प्रस्तुत कृति को पाठकों के स्वाध्याय के लिए सर्वांग सुगम करने का प्रयत्न किया है। ___ यद्यपि यहाँ आचार्य जयसेन स्वामी की सम्पूर्ण टीका तो नहीं दी है, तथापि आवश्यकतानुसार उनका मन्तव्य देने का प्रयत्न अवश्य किया है। अधिकांशतः तो आचार्य जयसेन स्वामी आचार्य अमृतचन्द्रदेव से सहमत ही हैं; किन्तु जहाँ उन्हें कुछ विशेष कहने का भाव आया, वहाँ आचार्यश्री जयसेन स्वामी ने बहुत विनय के साथ अति विनम्र भाषा में अपने स्वतंत्र विचारों का भी उल्लेख किया है, जो उनकी अपनी विशेषता है, परन्तु इस आधार पर दोनों में तुलनात्मक दृष्टि से किसी को भी हीनाधिक दर्जा नहीं दिया जा सकता; क्योंकि दोनों ही भावलिंगी छटवें-सातवें गुणस्थान में झूलने वाले महानाचार्य थे। दोनों ही टीकायें अत्यधिक उपयोगी और ज्ञानवर्द्धक हैं। अतः संस्कृत पाठी प्रौढ़ पाठकों को प्रस्तुत परिशीलन के अलावा दोनों ही संस्कृत टीकाओं को भी मनोयोग पूर्वक अवश्य पढ़ना चाहिए। ॐ नमः सिद्धेभ्यः । ह्र पण्डित रतनचन्द भारिल्ल सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ पर, व्याख्यान देकर षद्रव्यों एवं पंचास्तिकायों के ह्र स्वरूप को समझाकर मधुर वाणी द्वारा अमृतरस घोला है. सरल भाषा में गंभीर विषयों का रहस्य खोला है ।।३।। उपर्युक्त सभी मनीषियों ने अपनी-अपनी योग्यता प्रमाण ह्न जिसमें निर्पेक्ष भाव से कहने की कोशिश की है। वह ग्रन्थ प्रतिदिन पठनीय तो है ही, श्रद्धेय एवं आचरणीय भी है; क्योंकि वस्तुस्वातंत्र्य का पोषक एवं सागर का शोषक भी हैं।।४।। मैंने सभी मनीषियों के मूल अभिप्राय को समझ कर, उसे सरलतम भाषा में अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। अपनी योग्यतानुसार वस्तु के सम्यक् स्वरूप को कहने का ह्र लघुप्रयास किया है, मैंने स्वयं भी अमृतरसपान किया है।।५।। ह्न पण्डित रतनचन्द भारिल्ल (4)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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