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गाथा - १६० विगत गाथा में शुद्ध स्वचारित्र में प्रवृत्ति के मार्ग का कथन किया है।
प्रस्तुत गाथा १६० में निश्चय मोक्षमार्ग के साधन रूप व्यवहार मोक्षमार्ग का निर्देश है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चेट्टा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।।१६०।।
(हरिगीत) धर्मादि की श्रद्धा सुदृग पूर्वांग बोध-सुबोध है।
तप माँहि चेष्टा चरण मिल व्यवहार मुक्तिमार्ग है।।१६०|| धर्मास्तिकायादि का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व सम्बन्धी ज्ञान सम्यग्ज्ञान एवं तप में चेष्टा सम्यक्चारित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र कहते हैं कि सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है। छह द्रव्यरूप और नव-पदार्थ रूप जिसके भेद हैं ह्र ऐसे धर्मास्तिकाय आदि की तत्वार्थ प्रतीतिरूप भाव जिसका स्वभाव है ह्र उनका श्रद्धान ही सम्यक्त है। तत्वार्थ श्रद्धान के सद्भाव में अंग पूर्वगत विशेषों का जानना ज्ञान है तथा आचारादि सूत्रों द्वारा कहे गये अनेक प्रकार के मुनियों के आचार रूप तप में चेष्टा चारित्र है। ऐसा यह स्वपरहेतुक पर्यायाश्रित भिन्न साध्य-साधन भाव वाले व्यवहारनय के आश्रय से (व्यवहारनय की अपेक्षा से) अनुसरण किया जाने वाला मोक्षमार्ग में एकाग्रता को प्राप्त जीव को अर्थात् जिसका अंतरंग एकाग्र है, समाधि को प्राप्त है ह ऐसे जीव को पद-पद पर परम रम्य शुद्ध भूमिकाओं में अभेद रूप स्थिरता उत्पन्न करता है। यद्यपि शुद्ध जीव कथंचित् भिन्न साध्यसाधन भाव के अभाव के कारण स्वयं शुद्धस्वभाव से परिणत होता है, तथापि ह्न निश्चय मोक्षमार्ग के साधनपने को प्राप्त होता है।
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) इसी के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा) धर्मादिक में सुरुचि सो, सम्यक् श्रुत गत ज्ञान । तपः चरजा चरित है, विवहारी सिब जान।।२१०।।
(सवैया इकतीसा) छहों द्रव्य नवौं पद-विषै श्रद्धा प्रीति रुचि,
आपनी सुमुख होइ सम्यक् लखावना। तत्वों की प्रतीति विषै रीत न्यारी-न्यारी लसै,
सोई नाम ग्यान नाना रस का चखावना।। पर” विमुख आप विषै जो चरित नाम,
नाना तप धारी मोहचारित नसावना । सई तीनों विवहार निहचे स्वरूप साथै,
विवहार मोख माहिं इनका रखावना।।२११ ।। कवि कहते हैं कि - छहद्रव्यों एवं नवतत्त्वों के स्वरूप की समझ एवं श्रद्धारूप धर्म में जो रुचि अर्थात् श्रद्धान है, वही सम्यग्दर्शन है। इन्हीं का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा आत्मा में स्थिरता सम्यक्चारित्र है। इसी क्रम में नाना तपों के द्वारा मोह का नाश होता है। यह सब व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा अभेद एक रूप निज आत्मा में स्थिरता ही निश्चय चारित्र है।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने कहा कि - "छह द्रव्यों की श्रद्धा व्यवहार मोक्षमार्ग है। भगवान ने छह द्रव्य देखें हैं और उनकी दिव्यध्वनि में भी आये हैं। जिनधर्मी जीवों को आत्मा के आश्रय से सम्यक् श्रद्धा-ज्ञानचारित्र प्रगट हुए हैं, उन्हें रागरहित आत्मा की ऐसी प्रतीति होती है कि लोक में छह द्रव्य हैं और उनकी श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है। यद्यपि यह व्यवहार समकित शुभभाव है, पुण्यबंध का कारण है, परन्तु ऐसी श्रद्धा सम्यक्त की पूर्व भूमिका में होती ही है। जो ऐसा न माने वह मूढ़ है।
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