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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
व्यवहार को साध्य - साधनपना है। इसीलिए परमेश्वरी तीर्थ प्रवर्तना दोनों नयों के आधीन है।"
इसी के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा)
स्व-चरित कौं जो आचरै, पर आपा नहिं जास । दरसन ग्यान - विकल्पगत, अवकल्पी परकास ।। २०५ ।। ( सवैया इकतीसा )
जाकै भेदज्ञान जग्या राग-दोष मोह भग्या,
सगरा सरूप भास्या पर कै भगर का । विवहार निहचै का रूप आपरूप जान्या,
जामैं भेद निरभेद दौनों की करम का ।। विवहार - निचे का रूप आपरूप जान्या,
साधन अभेद साधि जामैं निरूपाधिरूप । सोई स्वचरिती सुद्ध पन्थ का पथिक नीका,
तिनही पयान कीना मोख कै नगर का । । २०६ ।। (दोहा)
साधन - साधि-विकल्पता, यहु कथनी विवहार । निचै एक अभिन्नता निरविकलप अविकार ।। २०७ ।। कवि कहते हैं कि - जो स्व- चारित्र को आचरते हैं अर्थात् स्व में लीन रहते हैं तथा पर में अपनापन नहीं करते वे दर्शन - ज्ञान के भेद को भी भुलाकर अपने में निर्विकल्प हो जाते हैं।
आगे कहते हैं कि जिसके भेदज्ञान प्रगट हुआ तथा मोह-राग-द्वेष का अभाव हो गया, सम्पूर्ण स्वरूप भासित हो गया, निश्चय व्यवहार के द्वारा अपना स्वरूप जान लिया। साधन-साध्य का कथन तो व्यवहार का विकल्प है। निश्चय से तो आत्मा निर्विकल्प है, साधन-साध्य का कथन तो व्यवहार का विकल्प है। निश्चय से तो आत्मा अपने अभिन्न है अर्थात् भेद रहित है - ऐसा चिन्तन ही मुक्ति का मार्ग है।
(243)
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३ )
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गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न जो पुरुष अपने स्वरूप का आचरण करते हैं वे दर्शन और ज्ञान अथवा निराकार व साकार अवस्था का भेद रहित अभेद रूप आचरण करते हैं। दर्शन का विषय अभेद है, इसलिए निराकार तथा ज्ञान भेद सहित जानता है, इसलिए साकार ह्र इस प्रकार दर्शन - ज्ञान को भेदरहित अभेदपने जानता है। वह भेद विज्ञानी परद्रव्य के अहं भाव से रहित है।
यह मुनियों के संदर्भ में बात है। मुनिराजों को वीतरागता का स्वसंवेदन मुख्य है। जोकि आकुलता रहित है।
छठवें गुणस्थान में मुनियों को महाव्रत आदि के विकल्प होते हुए भी उनको उस ओर की मुख्यता नहीं है। देखो! मुनिराजों को ऐसी प्रतीति तो हुई है कि गुण-गुणी अभेद हैं; किन्तु अपनी पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण देव-गुरुओं के प्रति प्रमोद आता है, परन्तु वे जानते हैं कि इस प्रमोद भाव से धर्म नहीं होता। धर्म तो वीतराग भाव ही हैं।
मुनिराजों को जैनधर्म की प्रभावना का विकल्प उठता है । कुन्दकुन्दाचार्य की शिष्य परम्परा में आचार्य जयसेन ने कहा है कि “जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा विधि का पाठ बताओ" देखो! मुनिराजों को भी मन्दिर के निर्वाण आदि का राग आता है, परन्तु उसकी मुख्यता नहीं होती।
प्रश्न : ह्न मुनि सर्व संगत्यागी हैं, तो फिर उन्हें मन्दिर बनवाने में राग कैसे आ सकता है? वे तो राग को अधर्म मानते हैं न?
समाधान : ह्र भाई मुनियों को अभी सम्पूर्ण वीतरागता की प्राप्ति नहीं हुई, राग की भूमिका है। स्वद्रव्य में अभी छठवें गुणस्थान शुभ की भूमिका है, मन्दिर तो निमित्त मात्र है। स्वद्रव्य व परद्रव्य का कारण पाकर शुभराग की पर्याय उत्पन्न होती है। "
इसप्रकार यहाँ कहा है कि मुनियों के यद्यपि निर्विकल्पता की ही मुख्यता; परन्तु यदा-कदा छठवें गुणस्थान में मन्दिर बनवाने जैसा शुभराग भी आ जाता है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२२, दि. ३१-५-५२, पृष्ठ- १७९७