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पञ्चास्तिकाय परिशीलन जिन्हें स्वभाव सन्मुखता की दृष्टि हुई है, उसकी नवतत्त्व की श्रद्धा ही व्यवहार समकित नाम पाती है।
भगवान ने दो नय कहे हैं। वे दोनों नय सच्चे तभी कहलाते हैं, जबकि वह अपने शुद्ध आत्मा को आदरणीय माने तथा व्यवहारनय का विषय जानने योग्य हैं। ऐसा जाने । उसको आत्मवस्तु के आश्रय से वीतरागता प्रगट होती है।
द्वादशांग के ज्ञान को व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं। वर्तमान में द्वादशांग के पूर्ण ज्ञान का तो विच्छेद, किन्तु उन अंगों का थोड़ा सा ज्ञान धरसेनाचार्य आदि को था। उनसे षट्खण्डादि आगमों की रचना हुई। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार आदि ग्रन्थों की रचना की, उनमें भी अंगों का अंश ही है।
जो ज्ञान आत्मा के आश्रय से प्रगट होता है, वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है।
अब व्यवहार चारित्र की बात करते हैं। बारह प्रकार का तप एवं तेरह प्रकार का चारित्र ह्र ये सब शुभराग हैं, व्यवहार चारित्र है। अशुभ से बचने के लिए ऐसे शुभ मुनियों को आते हैं। जब तक पूर्ण वीतरागता नहीं होती, तब तक शुभ विकल्प आये बिना नहीं रहता । जब धर्मी जीव शुद्ध चैतन्य स्वभाव की प्रतीतिपूर्वक स्वज्ञेय का अनुभव करते हैं, तब उस तत्व को बताने वाले सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति उन धर्मी जीवों को प्रमोद आये बिना नहीं रहता। ___यदि कोई कहे कि हमें राग वाली भूमिका है, तो भी सच्चे देवशास्त्र-गुरु के प्रति उल्लास नहीं आता तो यह बात झूठ है धर्मी को धर्म धर्मायतनों के प्रति उल्लास आता ही है, आना ही चाहिए; उल्लास को ही धर्म माने तो यह भी गलत है; क्योंकि उसने शुभभाव में धर्म माना; जबकि धर्म तो वीतराग भाव रूप है, राग रूप नहीं।"
इसप्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग का स्वरूप कहा।
गाथा - १६१ विगत गाथा में निश्चय मोक्षमार्ग के साधन रूप व्यवहार मोक्षमार्ग का निर्देश किया।
अब इस गाथा में व्यवहार मोक्षमार्ग के साध्यरूप से निश्चय मोक्षमार्ग का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र णिच्छयणएण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हजोअप्पा। ण कुगदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति।।१६१।।
(हरिगीत) जो जीव रत्नत्रय सहित आत्म चिन्तन में रमे। छोड़े ग्रह नहिं अन्य कुछ शिवमार्ग निश्चय है यही॥१६१।।
जो आत्मा सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ह्र इन तीनों में एकाग्र (अभेद) होता हुआ अन्य कुछ भी करता नहीं तथा छोड़ता भी नहीं है, वह निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है। ___ आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र द्वारा समाहित हुआ (सातवें गुणस्थान को प्राप्त) आत्मा ही स्वभाव में नियत चारित्र रूप होने के कारण निश्चय से मोक्षमार्ग है। ___ यह आत्मा वास्तव में निज उद्यम से अनादि अविद्या का नाश करके व्यवहार मोक्षमार्ग को प्राप्त करता हुआ धर्मादि सम्बन्धी तत्त्वार्थ अश्रद्धान के तथा अंग पूर्वगत पदार्थों सम्बन्धी अज्ञान के और अतप में चेष्टा के त्याग हेतु से तथा धर्मादि सम्बन्धी तत्वार्थ श्रद्धान के, अंग पूर्वगत पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान के और तप में चेष्टा के ग्रहण हेतु से ह्र इसप्रकार (तीनों के त्याग हेतु तथा तीनों के ग्रहण हेतु से) विवेकपूर्वक हेय-उपादेय रूप से जानने पर उसके ग्रहण व प्रतिकार का उपाय करता हआ अच्छी भावना से स्वभावभूत रत्नत्रय के साथ अंग-अंगी भाव से परिणति द्वारा रत्नत्रय से समाहित होकर अर्थात् सातवें गुणस्थान में जाकर ग्रहण-त्याग के विकल्प से शून्य होने के कारण, भावरूप व्यापार विराम को प्राप्त होने से निष्कम्प रूप से रहता है
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२२, दि. १-६-५२, पृष्ठ-१८०३