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________________ नियमसार अनुशीलन "जिन्हें अंतरंग में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप भावलिंग रहित मात्र बाह्यलिंग ही है, वे श्रमणाभास हैं। 'मैं दूसरों को प्रसन्न करूँ अथवा दूसरे मुझ पर प्रसन्न रहें' ह्र ऐसी जिनकी मान्यता है, उन्हें तो समता की गंध भी नहीं है। समस्त कर्मकादव से रहित परमानन्द का हेतुभूत परमसमताभाव ही मोक्ष का कारण है, परन्तु ऐसे समताभाव से रहित श्रमणाभास भले जंगल में वास करता हो, उग्र कायक्लेश आदि तप करता हो तो भी उसे मोक्ष की किंचित् भी साधना नहीं होती। तात्पर्य यह है कि उपवास आदि करने से उसे स्वर्गरूपी फल भले प्राप्त हो जाय, परन्तु वह फल प्रशंसनीय नहीं है, उपादेय नहीं है। उपादेय तो एक मोक्षफल ही है और मोक्ष का साधन आत्मज्ञान बिना नहीं होता।" इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि आत्मज्ञानपूर्वक हुए वीतरागी समताभाव के बिना वनवास, उपवास, पठन-पाठन, अध्ययन-मनन और मौन आदि बाह्य क्रियाएँ कुछ भी नहीं कर सकतीं।।१२४।। इसके बाद 'अमृताशीति में भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मालिनी) गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा। प्रपठनजपहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः मृगय तदपरं त्वं भो: प्रकारं गुरुभ्यः ।।६४।।' (हरिगीत) विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से। इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से॥ पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से। है नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से।।६४॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०२९ २. वही, पृष्ठ १०३० ३. अमृताशीति, श्लोक ५९ गाथा १२४ : परमसमाधि अधिकार पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहने से, इन्द्रियों के निरोध से, ध्यान से, तीर्थों में रहने से, पठन से, जप और होम से ब्रह्म (आत्मा) की सिद्धि नहीं है। इसलिए हे भाई! गुरुओं के सहयोग से भिन्न मार्ग की खोज कर। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "अतः हे भाई! तू व्रत, तप, जप, वगैरह समस्त शुभभाव से अन्य सच्चे उपाय को श्रीगुरु के पास जाकर शोध । तात्पर्य यह है कि जो गुरु 'व्रत, तप, पूजा आदि क्रियाकाण्ड के शुभराग से सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की प्राप्ति हो जायेगी' ह ऐसा कहते हैं, वे गुरु सच्चे नहीं हैं; परन्तु जो इससे भिन्न उपाय बताते हैं, वही गुरु सच्चे हैं; उन सच्चे गुरुओं के पास जाकर तू आत्मा की सिद्धि के उपाय को शोध। 'श्रीगुरु के द्वारा इससे भिन्न दूसरे उपाय को शोध' ह ऐसा कहकर इन्द्रियनिरोध, तप आदि जितने भी शुभभाव कहे हैं, उन सबका मोक्षसाधन के लिए निषेध किया गया है। और इनसे भिन्न अन्य कोई उपाय, जो बाकी रह गया है, उसे खोजने को कहा गया है।" इसीप्रकार का भाव श्रीमद् राजचन्द्र ने भी व्यक्त किया है; जो इसप्रकार है ह्न यम नियम संयम आप कियो पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, बनवास लियो मुखमौन रह्यो दृढ आसन पदम लगाय दियो। मन पौन निरोध स्वबोध कियो हठ जोग प्रयोग सुतार भयो, जप भेद जपे तप त्योंहि तपे उरसें हि उदासि लही सबसे ।। सब शास्त्रन के नय धारि हिये मत मण्डन खण्डन भेद लिये, वह साधन बार अनन्त कियो, तदपी कछु हाथ हजू न पर्यो । अब क्यौं न विचारत है मन में कछु और रहा उन साधन से? इसमें कहा गया है कि तूने अपनी समझ से सुख-शान्ति प्राप्त करने के अनेक उपाय किये, पर सफलता हाथ नहीं लगी। ऐसी स्थिति में भी १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०३२
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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