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________________ नियमसार अनुशीलन तू यह विचार क्यों नहीं करता कि कुछ ऐसा बाकी रह गया है, जो कार्यसिद्धि का असली कारण है ।।६४।। इसके बाद एक छन्द स्वयं टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं, जो इसप्रकार है ह्र (द्रुतविलंबित ) अनशनादितपश्चरणै: फलं समतया रहितस्य यतेन हि। तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं भज मुने समताकुलमंदिरम् ।।२०२।। (हरिगीत) अनशनादि तपस्या समता रहित मनिजनों की। निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर।। और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो। उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से ।।२०२।। समताभाव रहित अनशनादि तपश्चरणों से कुछ भी फल नहीं है। इसलिए हे मुनि ! समताभाव का कुलमंदिर अर्थात् वंश परम्परागत उत्तम घर यह अनाकुल निजतत्त्व है; उसे भज, उसका भजन कर, उसकी आराधना कर। स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "निजतत्त्व के आश्रय से वीतरागी समता प्रगट होती है, वही वास्तविक समता है। इसके अलावा मंदकषाय आदि वास्तविक समता नहीं है। चैतन्य के आश्रय से जिनके वीतरागी समता नहीं हुई है, उन्हें अनशन आदि तपश्चरणों से मोक्षरूपी फल नहीं होता।' इसलिए हे मुनि! समता के कुलमन्दिरस्वरूप स्वतत्त्व को तू भज।" इसप्रकार हम देखते हैं कि १२४वीं गाथा की टीका और टीका में उद्धृत तथा टीकाकार द्वारा लिखे गये छन्दों में एक ही बात जोर देकर कही जा रही है कि आत्मानुभव के बिना बाह्य क्रियाकाण्ड से कुछ भी होनेवाला नहीं है। अत: इससे विरक्त होकर जो आजतक नहीं कर पाया, सद्गुरु के सहयोग से वह करने का प्रयास कर, सच्चे मार्ग की खोज कर । बाह्य क्रियाकाण्ड में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं है ।।२०२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०३३ नियमसार गाथा १२५ परमसमाधि का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस अधिकार की आगामी सभी गाथाओं में अर्थात् ९ गाथाओं में समाधिरूप सामायिक किन लोगों को होती ह यह समझाते हैं। इन सभी गाथाओं की दूसरी पंक्ति लगभग एक समान ही है। उक्त नौ गाथाओं में सबसे पहली अर्थात् १२५वीं गाथा मूलतः इसप्रकार है त विरदो सव्वसावजे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२५ ।। (हरिगीत) जो विरत हैं सावध से अर तीन गुप्ति सहित हैं। उन जितेन्द्रिय संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२५|| जो सर्व सावद्य से विरत है, तीन गुप्तिवाला है और जिसने इन्द्रियों को बंद किया है, निरुद्ध किया है, कैद किया है; उसे सामायिक स्थायी है, सदा है ह ऐसा केवली के शासन में कहा है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "इस गाथा में सकल सावध से रहित, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त तथा सभी इन्द्रियों के व्यापार से विमुख मुनिराजों को सामायिक व्रत स्थायी है ह्र ऐसा कहा है। इस लोक में जो एकेन्द्रियादि प्राणियों को क्लेश के हेतुभूत समस्त सावद्य की आसक्ति से मुक्त हैं; मन-वचन-काय के प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त व्यापार के अभाव के कारण तीन गुप्तिवाले हैं और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामक पाँच इन्द्रियों द्वारा उस-उस इन्द्रिय के योग्य विषय ग्रहण का अभाव होने से इन्द्रियों के निरोधक हैं; उन महा मुमुक्षु परम वीतरागी संयमियों को वस्तुतः सामायिक व्रत शाश्वत है, स्थायी है।"
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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