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नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“इस गाथा में संयम, नियम, तप तथा धर्मध्यान व शुक्लध्यान ह्र इसप्रकार परमसमाधि के पाँच साधनों का वर्णन किया गया है।
उक्त पाँच साधनों द्वारा जो जीव अपने आत्मा को ध्याता है, उसे परमसमाधि होती है। आत्मा का ध्यान करना अर्थात् आत्मा में ही लीन हो जाना निश्चय से परमसमाधि है।"
इसके बाद स्वामीजी संयम, नियम, तप, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के स्वरूप को विस्तार से समझाते हैं, जो मूलतः पठनीय है।
इस गाथा और इसकी टीका में यही कहा गया है कि इन्द्रियों के व्यापार के परित्यागरूप संयम, आत्मा की आराधना में तत्परतारूप नियम, स्वयं को स्वयं में धारणरूप तप, स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान
और निरंजन निज परमात्मतत्त्व में अविचल स्थितिरूप शुक्लध्यानरूप विशेष सामग्री सहित, अखण्ड, अद्वैत, परमचैतन्य आत्मा का ध्यान ही परमसमाधि है ।।१२३।।
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जो इस प्रकार है तू
(अनुष्टुभ् ) निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये । द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानं तं नमाम्यहम् ।।२०१।।
(हरिगीत) निर्विकल्पक समाधि में नित रहें जो आतमा ।
उस निर्विकल्पक आतमा को नमन करता हूँ सदा ||२०१|| जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधि में रहता है; उस द्वैताद्वैत के विकल्पों से मुक्त आत्मा को मैं नमन करता हूँ।
उक्त छन्द में समाधिरत आत्मा को अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार किया गया है ।।२०१|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०२१
नियमसार गाथा १२४ विगत दो गाथाओं में परमसमाधि का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस १२४वीं गाथा में यह बता रहे हैं कि समता रहित श्रमण के अन्य सभी बाह्याचार निरर्थक हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।।१२४ ।।
(हरिगीत) वनवास कायक्लेशमय उपवास अध्ययन मौन से।
अरे समताभाव बिन क्या लाभ श्रमणाभास को ।।१२४|| वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि क्रियायें समता रहित श्रमण को क्या करेंगे अर्थात् कुछ नहीं कर सकते। ___इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"इस गाथा में यह कहा गया है कि समताभाव के बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को रंचमात्र भी परलोक (मोक्ष) का साधन नहीं है।
केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को; सभी प्रकार के सभी कर्मकलंकरूप कीचड़ से रहित, महा आनन्द के हेतुभूत परम समता भाव बिना वनवास में बसकर वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठने से, ग्रीष्म ऋतु में प्रचण्ड सूर्य की किरणों से संतप्त पर्वत के शिखर की शिला पर बैठने से और हेमन्त ऋतु में अर्द्ध रात्रि में नग्न दिगम्बर दशा में रहने से, हड्डी और चमड़ी मात्र रह गये शरीर को क्लेशदायक महा उपवास से, निरन्तर अध्ययन करते रहने से अथवा वचन व्यापार की निवृत्तिरूप मौन से क्या रंच मात्र भी कुछ होनेवाला है ? नहीं, कुछ भी होनेवाला नहीं है।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र