SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ नियमसार अनुशीलन अद्वैत के विकल्प के राग से रहित शुद्ध आत्मा को ही नमस्कार करता हूँ भाता हूँ; शुद्ध आत्मा में ही परिणमता हूँ। 'शुद्ध आत्मा की इच्छा करता हूँ' ह्र ऐसा नहीं कहा, परन्तु 'शुद्ध आत्मा को नमस्कार करता हूँ ह्र शुद्ध आत्मा में नमता हूँ अर्थात् उसमें ही एकाग्र होता है' ह्र ऐसा कहा। बाहर में भगवान को नमस्कार करने का भाव पुण्य है, उसे भगवान ने सामायिक नहीं कहा है। भगवान ने तो चैतन्यस्वरूप वीतराग भाव में स्थिर होने को ही सामायिक कहा है। जिसप्रकार ओखली तो स्थिर रहती है और मूसल बारंबार पलटता अर्थात् ऊपर-नीचे आता जाता है, उसीप्रकार चैतन्य में ध्रुवस्वभाव तो स्थिर रहता है और पर्यायें बारंबार पलटती हैं। उस पर्याय के द्वारा मैं बारंबार चैतन्यस्वभाव की भावना भाता हूँ । चैतन्यस्वभाव की भावना का नाम ही सामायिक हैं तथा यह सामायिक ही मुक्ति का कारण है। २" उक्त तीनों छन्दों में द्वैत और अद्वैत के विकल्पजाल से मुक्त भगवान आत्मा को प्राप्त करने की भावना भायी गयी है ।। २०५ -२०७ ।। इसके बाद आनेवाले दो शिखरिणी छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( शिखरिणी ) विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरैः अखण्डानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः । अयं द्वैताद्वैतो न भवति ततः कश्चिदचिरात् तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ।। २०८ ।। सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितव्रातजनितं शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च । यदेकस्याप्युच्चैर्भवपरिचयो बाढमिह नो य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम् ।। २०९ ।। ( हरिगीत ) संसार के जो हेतु हैं इन विकल्पों के जाल से । क्या लाभ है हम जा रहे नयविकल्पों के पार अब ॥ २. वही, पृष्ठ १०४४ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४३ 10 गाथा १२६ : परमसमाधि अधिकार १९ नयविकल्पातीत सुखमय अगम आतमराम को । वन्दन करूँ कर जोड़ भवभय नाश करने के लिए || २०८ || अच्छे बुरे निजकार्य से सुख-दुःख हों संसार में । पर आतमा में हैं नहीं ये शुभाशुभ परिणाम सब ॥ क्योंकि आतमराम तो इनसे सदा व्यतिरिक्त है। स्तुति करूँ मैं उसी भव से भिन्न आतमराम की || २०९ ॥ संसार को बढ़ानेवाले इन विकल्प कथनों से बस होओ, बस होओ। समस्त नयसमूह का अविषय यह अखण्डानन्दस्वरूप आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है; द्वैत और अद्वैत संबंधी विकल्पों से पार है। इस एक निज आत्मा को मैं भवभय का नाश करने के लिए बारम्बार वंदन करता हूँ । संसार में चार गति और ८४ लाख योनियों में होनेवाले सुख-दुख, पुण्य-पाप से होते हैं। यदि निश्चयनय से विचार करें तो शुभ और अशुभपरिणति आत्मा में है ही नहीं; क्योंकि इस लोक में एकरूप आत्मा को भव (संसार) का परिचय ही नहीं है । इसलिए मैं शुभ-अशुभ, राग-द्वेष आदि भव गुणों अर्थात् विभावभावों से रहित निज शुद्ध आत्मा का स्तवन करता हूँ । उक्त दो छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " आत्मा तो अखण्ड आनन्दस्वरूप विकल्पातीत है, समस्त विकल्पों से अगोचर है तथा स्वभाव से स्वयं सिद्ध अखण्ड आनन्द की मूर्ति है । " आत्मा तो द्वैत-अद्वैत के विकल्प से पार अवर्णनीय है। यहाँ अवर्णनीय कहने से सर्वथा अवर्णनीय नहीं समझना चाहिए; क्योंकि आत्मा वाणी से कथंचित् कहा भी जाता है; परन्तु वह वाणी के द्वारा पकड़ने में नहीं आता, इसलिए उसे यहाँ अवर्णनीय कहा है। शीघ्र भव भय का नाश करने के लिए मैं ऐसे एक आत्मा का १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy