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________________ नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत ) जिन मुनिवरों का चित्त नित त्रस थावरों के त्रास से । मुक्त हो सम्पूर्णतः अन्तिम दशा को प्राप्त हो । उन मुनिवरों को नमन करता भावना भाता सदा । स्तवन करता हूँ निरन्तर मुक्ति पाने के लिए || २०४ || जिन परम जिन मुनियों का चित्त त्रस जीवों के घात और स्थावर जीवों के वध से अत्यन्त मुक्त है, निर्मल है तथा अन्तिम अवस्था को प्राप्त है। कर्मों से मुक्त होने के लिए मैं उन मुनिराजों को नमन करता हूँ, उनकी स्तुति करता हूँ और उन्हें सम्यक्रूप से भाता हूँ, वैसा बनने की भावना करता हूँ। इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र १६ 'यहाँ यह ध्यान रखना कि पर को नमस्कार करने का जो विकल्प है वह विकल्प मुक्ति का कारण नहीं है। मुक्ति तो अन्तरंग ज्ञातादृष्टा स्वभाव से चैतन्यमूर्ति निज भगवान आत्मा के भानपूर्वक प्रगट हुई वीतरागता से ही होती है। इसलिए ऐसे मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ, उनका ही स्तवन करता हूँ और सम्यक्प्रकार से भावना भाता हूँ । अहो ! ऐसे मुनि भगवंत का मुझे नित्य समागम हो तथा मेरे अन्दर में ऐसी ही वीतरागता प्रगट हो ह्न यही भावना है। " उक्त छन्द में त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त चित्तवाले मुनिराजों को अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक नमस्कार किया गया है, उनकी स्तुति करने की भावना व्यक्त की गई है और उसीप्रकार के परिणमन होने की संभावना भी व्यक्त की गई है || २०४ ।। इसके बाद तीन श्लोक (अनुष्टुभ्) हैं, जो इसप्रकार हैं ह्र ( अनुष्टुभ् ) केचिदद्वैतमार्गस्थाः केचिद् द्वैतपथे स्थिताः । द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमार्गे वर्तामहे १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४१ वयम् ।।२०५ ।। 9 गाथा १२६ : परमसमाधि अधिकार १७ कांक्षत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे । द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानमभिनौम्यहम् ।।२०६ ।। अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम् । आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ।। २०७ ।। (दोहा) कोई वर्ते द्वैत में अर कोई अद्वैत । द्वैताद्वैत विमुक्तमग हम वर्ते समवेत || २०५ || कोई चाहे द्वैत को अर कोई अद्वैत । द्वैताद्वैत विमुक्त जिय मैं वंदूं समवेत ॥ २०६ ॥ ( सोरठा ) थिर रह सुख के हेतु अज अविनाशी आत्म में । भाऊँ बारंबार निज को निज से निरन्तर || २०७|| कई लोग अद्वैत मार्ग में स्थित हैं और कई लोग द्वैत मार्ग में स्थित हैं; परन्तु हम तो द्वैत और अद्वैत मार्ग से विमुक्त मार्ग में वर्तते हैं। कई लोग अद्वैत की चाह करते हैं और कई लोग द्वैत को चाहते हैं, किन्तु मैं तो द्वैत और अद्वैत मार्ग से विमुक्त मार्ग को नमन करता हूँ। सुख की आकांक्षा रखनेवाला आत्मा अर्थात् मैं अजन्मे और अविनाशी अर्थात् जन्म-मरण से रहित अनादि अनंत निज आत्मा को आत्मा द्वारा, आत्मा में स्थित रखकर बारम्बार भाता हूँ। उक्त छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ""मैं एक अद्वैत हूँ' ह्र ऐसा विकल्प वह राग है तथा 'मैं गुणी और ज्ञान आदि मेरे गुण हैं' ह्र इसप्रकार द्वैत का विकल्प वह भी राग है ह्न ये दोनों विषमभाव हैं। द्वैत-अद्वैत दोनों के विकल्प से रहित होकर मैं तो चैतन्य में वर्तता हूँ। विकल्परहित स्थिरभाव ही सामायिक है ह्न यह बात इस श्लोक में कही है।" मैं द्वैत-अद्वैत के विकल्प की भावना नहीं भाता हूँ। मैं तो द्वैत १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४२
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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