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नियमसार अनुशीलन
अन्तर से सत्कार करता हूँ ह्र आदर करता हूँ ह्र नमस्कार करता हूँ, इसका नाम सामायिक है।
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आत्मा तो पुण्य-पाप रहित है, उसे निश्चय से चार गति का भ्रमण नहीं है, उसके स्वभाव में भव नहीं है ह्र ऐसे स्वभाव को स्वीकार कर ही प्रतीति में लेते ही सम्यक्त्व प्रगट होता है, तत्पश्चात् ही सामायिक होता है। यदि तुझे सामायिक करनी है तो ऐसे त्रिकाली आत्मा की प्रतीति कर ह्न उसका परिचय कर; निश्चय से देखा जाय तो चिदानन्द स्वरूप आत्मा में शुभ-अशुभ परिणति का तो अभाव ही है।
उन समस्त विकारी भावों की वासना का चैतन्यस्वरूप में त्याग है । ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप का मैं स्तवन करता हूँ ह्र आदर करता हूँ ह्र उसी में स्थिर होता हूँ । इसप्रकार शुद्धात्मा का स्तवन ही वास्तविक सामायिक है।"
इन छन्दों में भी वही द्वैत-अद्वैत के भेदभावों से रहित आत्मा के आराधना की बात कही गई है ।। २०८ - २०९ ।।
इसके बाद आनेवाले दो छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( मालिनी ) इदमिहमघसेनावैजयन्तीं
हरेत्तां
स्फुटितसहजतेज:पुंजदूरीकृतांहः । प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्धं
जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम् ।। २१० ।। (पृथ्वी) जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्त संसारकं महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् ।
विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्दशां गोचरम् ।। २११ ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४५ २. वही, पृष्ठ १०४७
३. वही, पृष्ठ १०४७
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गाथा १२६ : परमसमाधि अधिकार
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( हरिगीत )
प्रगट अपने तेज से अति प्रबल तिमिर समूह को । दूर कर क्षणमात्र में ही पापसेना की ध्वजा ॥ हरण कर ली जिस महाशय प्रबल आतमराम ने । जयवंत है वह जगत में चित्वमत्कारी आतमा ||२१० || गणधरों के मनकमल थित प्रगट शुध एकान्ततः । भवकारणों से मुक्त चित् सामान्य में है रत सदा ॥ सद्दृष्टियों को सदागोचर आत्ममहिमालीन जो ।
जयवंत है भव अन्तकारक अनघ आतमराम वह || २११ ॥
प्रगट हुए सहज तेजपुंज द्वारा, अति प्रबलमोहतिमिर समूह को दूर करनेवाला तथा पुण्य-पापरूपी अघसेना की ध्वजा का हरण करने वाला सदा शुद्ध, चित्चमत्कारमात्र आत्मतत्त्व जगत में नित्य जयवंत है ।
जिसने संसार का अस्त किया है, जो महामुनिराजों के नायक गणधरदेव के हृदय कमल में स्थित है, जिसने भव के कारण को छोड़ दिया है, जो पूर्णत: शुद्ध प्रगट हुआ है तथा जो सदा निजमहिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर है; वह पुण्य-पाप से रहित
आत्मतत्त्व जयवंत है ।
इन छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“अहो! आत्मा चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्व सदा शुद्ध-शुद्ध है। त्रिकाली द्रव्य तो शुद्ध है ही, उसके साथ कारणरूप पर्याय भी त्रिकाल शुद्ध है। ऐसा महिमावंत चैतन्यचमत्कार तत्त्व जगत में सदा जयवंत वर्तता है। जहाँ चैतन्य चमत्कार है, वहाँ नमस्कार करो ।
मुनिराज कहते हैं कि तुम्हारे अन्तर में जो सहज चैतन्य-स्वरूप निजतत्त्व वर्त रहा है, उसका अनुभव करो। तुम्हारे अन्दर में ही जो परमात्मशक्ति भरी है, तुम उसी को देखो ह्न उसी को अनुभवो ।
आत्मतत्त्व अन्तर में सहज शुद्ध ज्यों का त्यों विराजमान है तथा २. वही, पृष्ठ १०५०
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०४८