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नियमसार
___अजीवद्रव्यव्याख्यानोपसंहारोयम् । तेषु मूलपदार्थेषु पुद्गलस्य मूर्तत्वम्, इतरेषाममूर्तत्वम् । जीवस्य चेतनत्वम्, इतरेषामचेतनत्वम् । स्वजातीयविजातीयबन्धापेक्षया जीवपुद्गलयोरशुद्धत्वम्, धर्मादीनां चतुर्णां विशेषगुणापेक्षया शुद्धत्वमेवेति ।
(मालिनी) इति ललितपदानामावलि ति नित्यं
वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य । सपदि समयसारस्तस्य हृत्पुण्डरीके
लसति निशितबुद्धेः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।५३।। यह गाथा अजीवाधिकार के उपसंहार की गाथा है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) एक पुद्गल मूर्त द्रव्य अमूर्तिक हैं शेष सब |
एक चेतन जीव है पर हैं अचेतन शेष सब ||३७|| पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं। इसीप्रकार जीव चेतन है और शेष द्रव्य चैतन्यगुण से रहित हैं, अचेतन हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“उक्त मूल पदार्थों में पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष पाँच प्रकार के द्रव्य अमूर्तिक हैं। इसीप्रकार जीव चेतन है और शेष पाँच प्रकार के द्रव्य अचेतन हैं। स्वजातीय और विजातीय बंध की अपेक्षा से जीव और पुद्गलों को बंधदशा में अशुद्धता है; शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ह्न इन चार प्रकार के द्रव्यों में विशेष गुण की अपेक्षा शुद्धपना है।"
उक्त गाथाओं और उनकी टीका में मात्र यह कहा गया है शेष सभी द्रव्य अमूर्तिक हैं। इसीप्रकार जीवद्रव्य चेतन हैं और जीव को छोड़कर शेष द्रव्य अचेतन हैं। पुद्गल परमाणु दूसरे परमाणुओं से मिलकर स्कंधरूप परिणमता है ह यह उसकी सजातीय अशुद्ध अवस्था है और जब वह पुद्गल द्रव्य जीव के साथ बंधता है तो वह उसकी विजातीय अशुद्ध अवस्था है।
जीव दूसरे जीवों से तो बंधता ही नहीं है; अत: उसमें सजातीय अशुद्धता नहीं होती; किन्तु पुद्गल के साथ बंधने के कारण जीव में विजातीय अशुद्धता पाई जाती है। शेष चार द्रव्य कभी किसी से बंधते नहीं; अत: उनमें अशुद्धता होती ही नहीं है।३७||
इसके बाद अधिकार के अंत में टीकाकार मनिराज एक मंगल-आशीर्वादातात्मक छन्द लिखते हैं।