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नियमसार
धर्माधर्माकाशानां संक्षेपोक्तिरियम् । अयं धर्मास्तिकाय: स्वयं गतिक्रियारहितः दीर्घिकोदकवत् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्यायोगिनः पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्य भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षटकापक्रमविमुक्तस्य मुक्तिवामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशावासपञ्चविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतुःधर्मः, अपिच षट्कापक्रमयुक्तानां संसारिणा विभावगतिक्रियाहेतुश्च । यथोदकं पाठीनानां गमनकारणं तथा तेषां जीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः । सोऽयममूर्त: अष्टस्पर्शविनिर्मुक्तः वर्णरसपंचकगंधद्वितयविनिर्मुक्तश्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधार: लोकमात्राकारः अखण्डैकपदार्थः । सहभुवो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोर्धर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणाः शुद्धपर्याया भवन्ति । अधर्मद्रव्यस्य स्थितिहेतुर्विशेषगुणः ।
जीव और पुदगल द्रव्यों को गमन में निमित्त धर्मद्रव्य और गमनपूर्वक स्थिति का निमित्त अधर्मद्रव्य है तथा जीवादि सभी छह द्रव्यों को अवगाहन (रहने) में निमित्त आकाश द्रव्य है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य का संक्षिप्त कथन है। यह धर्मास्तिकाय बावड़ी के पानी की भांति स्वयं गमनरूप क्रिया से रहित है। अ, इ, उ, ऋ, ल ह्न इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतना समय जिन्हें सिद्धशिला पर पहुँचने में लगता है; जो सिद्धनाम के योग्य हैं; जो छह उपक्रमों से विमुक्त हैं अर्थात् जिनका संसारी जीवों के समान छह दिशाओं में गमन नहीं होता, मात्र ऊर्ध्वगमन ही होता है; जो मुक्तिरूपी सुन्दर नयनोंवाली सुलोचना के द्वारा देखे जाने योग्य हैं; जो तीन लोकरूपी पर्वत के शिखर हैं; जिन्होंने क्लेश के गृह एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप पंचविध संसार को दूर कर दिया है और जो पंचम गति की सीमा पर स्थित हैं अर्थात् मुक्तिरूप नगर के निकट हैं; ऐसे अयोगी जिनों को स्वभावगति क्रियारूप से परिणत होने में हेतु (निमित्त) धर्मद्रव्य है। वह धर्मद्रव्य छह उपक्रम से युक्त अर्थात् छहों दिशाओं में गमन करनेवाले संसारियों की विभावगति क्रिया में भी हेतु (निमित्त) होता है।
इसप्रकार वह धर्मद्रव्य समस्त जीवों की गमनक्रिया में निमित्त होता है। जिसप्रकार पानी मछलियों के आवागमन में निमित्त होता है; उसीप्रकार धर्मद्रव्य सभी जीव और पुद्गलों के आवागमन में निमित्त होता है। वह अमूर्त धर्मद्रव्य आठ प्रकार के स्पर्शों, पाँच-पाँच प्रकार के रसों व वर्णों और दो प्रकार की गंधों से रहित; अगुरुलघुत्वादि गुणों का आधारभूत, लोकाकाश के समान आकारवाला, अखण्ड, एक पदार्थ है।
'गुण सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं ह ऐसा आगम का वचन होने से गति के हेतुभूत इस धर्मद्रव्य के शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं।