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अजीव अधिकार
(उपेन्द्रवज्रा) अचेतने पुद्गलकायकेऽस्मिन् सचेतने वा परमात्मतत्त्वे । न रोषभावो न च रागभावो भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम् ।।४५।। गमणणिमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपोग्गलाणं च। अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं ।।३०।। गमननिमित्तो धर्मोऽधर्म:स्थिते: जीवपुद्गलानां च।
अवगाहनस्याकाशं जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ।।३०।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) पुद्गल अचेतन जीव चेतन भाव अपरमभाव में।
निष्पन्न योगीजनों को ये भाव होते ही नहीं।।४४|| पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है ऐसे भाव (विकल्प) प्राथमिक भूमिकावालों को ही होते हैं, निष्पन्न योगियों को नहीं होते।
उक्त कथन का सार यह है कि आत्मखोजी अज्ञानी जीवों को और ज्ञानियों को भी, जब वेसमाधिस्थ नहीं होते हैं, तब उन्हें भी स्व-पर-भेदविज्ञान संबंधी विकल्प खड़े होते हैं; किन्तु आत्मानुभूति के काल में, ध्यानस्थ अवस्था में भेदविज्ञान संबंधी विकल्प भी खड़े नहीं होते॥४४॥ तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) जड देह में न द्वेष चेतन तत्त्व में भी राग ना।
शुद्धात्मसेवी यतिवरों की अवस्था निर्मोह हो||४५|| इस अचेतन पौद्गलिक शरीर में द्वेषभाव नहीं होता और सचेतन परमात्मतत्त्व में रागभाव नहीं होता ह्न ऐसी शुद्धदशा यतियों की होती है।
इस कलश में यही कहा गया है कि शुद्धात्मसेवी मुनिवरों को किसी के भी प्रति राग-द्वेष नहीं होता; सर्वत्र समभाव ही वर्तता है।।४५||
विगत गाथाओं में पुद्गलद्रव्य का विस्तार से निरूपण करने के उपरान्त अब ३०वीं गाथा में धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य का स्वरूप संक्षेप में स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) सब द्रव्य के अवगाह में नभ जीव पुद्गल द्रव्य के। गमन थिति में धर्म और अधर्म द्रव्य निमित्त हैं।|३०||