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शुद्धोपयोग अधिकार
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इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धोपयोगाधिकारो द्वादशमः श्रुतस्कन्धः।।
समाप्ता चेयं तात्पर्यवृत्तिः। चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(हरिगीत) तारागण से मण्डित शोभे नील गगन में। अरे पूर्णिमा चन्द्र चाँदनी जबतक नभ में ।। हेयवृत्ति नाशक यह टीका तबतक शोभे ।
नित निज में रत सत्पुरुषों के हृदय कमल में ||३११|| जबतक तारागणों से घिरा हआ पूर्णचन्द्रबिम्ब सुन्दर आकाश में शोभायमान रहे, तबतक यह हेयवृत्तियों को निरस्त करनेवाली तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहे।
यह मंगल आशीर्वादात्मक अंतमंगल है; जिसमें यावद चन्द्रदिवाकरौं' की शैली में यह कहा गया है कि जबतक आकाश में तारागण से वेष्टित पूर्ण चन्द्र रहे, तबतक अर्थात् अनंतकाल तक यह टीका सज्जनों के हृदय कमल में विराजमान रहे||३११
अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शद्धोपयोगाधिकार नामक बारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।
और यहाँ यह तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका भी समाप्त होती है। यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में शुद्धोपयोगाधिकार नामक बारहवाँ श्रुतस्कंध समाप्त होता है।
(दोहा) टीका आत्मप्रबोधिनी हिन्दी भाषा माँहि । आठ नवम्बर दो सहस बारह सन के ताँहि ।। पूर्ण हई जयपुर नगर विना विघ्न सानन्द।
प्रमुदित मन पुलकित वदन सब विधि सहजानन्द।। हिन्दी भाषा में लिखी गई यह आत्मप्रबोधिनी नाम की टीका आठ नवम्बर दो हजार बारह सन् को जयपुर नगर में निर्विघ्न पूर्ण हुई है। इसकारण मेरा मन प्रमुदित है और तन पुलकित हो रहा है तथा सर्वप्रकार से सहजानन्द है।
इसप्रकार यह आचार्य कुंदकुंद कृत नियमसार नामक मूलग्रंथ और उसकी मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्यवृत्ति रूप संस्कृत टीका तथा दोनों की यह डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी नामक हिन्दी टीका यहाँ समाप्त होती है।