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नियमसार
(अनुष्टुभ् ) पद्मप्रभाभि-धानोद्घ-सिन्धुनाथ-समुद्भवा। उपन्यासोर्मिमालेयं स्थेयाच्चेतसि सा सताम् ।।३०९।। अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत् । लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ।।३१०।।
(वसंततिलका) यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे
तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् । तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्तिः स्थयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ।।३११।।
(हरिगीत ) पद्मप्रभमलधारि नामक विरागी मुनिदेव ने | अति भावना से भावमय टीका रची मनमोहनी ।। पद्मसागरोत्पन्न यह है उर्मियों की माल जो।
कण्ठाभरण यह नित रहे सज्जनजनों के चित्त में ||३०९|| पद्मप्रभ नाम के उत्तम समुद्र से उत्पन्न होनेवाली यह उर्मिमाला-लहरों की मालाकथनी सत्पुरुषों के चित्त में स्थित रहो।।
टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि जिसप्रकार समुद्र में लहरें उठती हैं, उछलती हैं; उसीप्रकार यह शास्त्र नियमसार पढकर मेरे मनरूपी समुद्र में उसकी टीका लिखने के भाव उछलते हैं; अत: मैंने यह टीका लिखी है। मेरी एकमात्र भावना यह है कि इससे लाभ लेनेवाले आत्मार्थी सत्पुरुषों के हृदय में यह सदा स्थित रहे||३०९|| तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) यदिइसमें कोइ पद लगे लक्षणशास्त्र विरुद्ध ।
भद्रकवि रखना वहाँ उत्तम पद अविरुद्ध ||३१०|| यदि इस टीका में कोई पद लक्षणशास्त्र के विरुद्ध हो तो भद्र कविगण उसका लोप करके उसके स्थान पर उत्तमपद रख देवें ह्न ऐसा मेरा अनुरोध है।
ध्यान रहे यहाँ टीकाकार मनिराज भाव की भल स्वीकार नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें पक्का भरोसा है कि उनकी लेखनी से भाव संबंधी भूल तो हो ही नहीं सकती। उनका तो मात्र इतना ही कहना है कि किसी छन्द में छन्द शास्त्र के विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो सज्जन पुरुष उसे सुधार लेवें||३१०||