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शुद्धोपयोग अधिकार
णविदुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा । वि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। १७९ ।।
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इसमें शुद्ध है, शुद्ध है; पद की पुनरावृत्ति से द्रव्यशुद्धता और भावशुद्धता की ओर संकेत किया गया है। अपद है, अपद है और इधर आओ, इधर आओ पदों से अत्यधिक करुणाभाव सूचित होता है ॥८६॥
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज 'तथा हि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(वीर )
भाव पाँच हैं उनमें पंचम परमभाव सुखदायक है। सम्यक् श्रद्धा धारकगोचर भवकारण का नाशक है । परमशरण है इस कलियुग में एकमात्र अघनाशक है। इसे जान ध्यावें जो मुनि वे सघन पापवन पावक हैं ।। २९७॥
भाव पाँच हैं; जिनमें संसार के नाश का कारण यह परम पंचमभावपरमपारिणामिकभाव निरन्तर रहनेवाला स्थायी भाव है और सम्यग्दृष्टियों के दृष्टिगोचर है। समस्त राग-द्वेष को छोड़कर तथा उस परमपंचमभाव को जानकर जो मुनिवर उसका उग्र आश्रय करते हैं; वे मुनिवर ही इस कलियुग में अकेले पापरूपी भयंकर जंगल जलाने में, भस्म कर देने में समर्थ अग्नि के समान हैं।
इस छन्द में यह कहा गया है कि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ह्न इन पाँच भावों में परम- परिणामिकभाव नामक सदा स्थायी रहनेवाला सम्यग्दृष्टियों के गोचर पंचमभाव भव का अभाव करनेवाला है। एकमात्र वे मुनिवर ही इस कलियुग में पापरूपी भयंकर जंगल को जलाने में, भस्म कर देने में अग्नि के समान हैं; जो समस्त राग-द्वेष छोड़कर, उस परम पंचमभाव को जानकर उस परमपारिणामिकभाव का उग्र आश्रय करते हैं; क्योंकि उक्त परमपरिणामिकभावरूप पंचमभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है, मुक्ति की प्राप्ति होती है ।। २९७॥
विगत गाथा में जिस परमतत्त्व का स्वरूप समझाया है; अब इस गाथा में यह कहते हैं। कि निर्वाण का कारण होने से वह परमतत्त्व ही निर्वाण है।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
जनम है न मरण है सुख-दुख नहीं पीड़ा नहीं । बाधा नहीं वह दशा ही निर्बाध है निर्वाण है ।।१७९ ।।