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नियमसार
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्न
(मंदाक्रांता) आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः। एतैतेत: पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धःशुद्धः स्वरसभरत:स्थायिभावत्वमेति ।।८६।। तथा हि ह्र
(शार्दूलविक्रीडित) भावा: पंच भवन्ति येषु सततं भावः परः पंचमः स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः। तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकरं बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान्
एको भाति कलौ युगे मुनिपति: पापाटवीपावकः ।।२९७।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा अमृतचन्द्र आचार्यदेव के द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(हरिगीत) अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियो। यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे। जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में।
हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ||८६|| आचार्यदेव संसार में मग्न जीवों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे जगत के अन्धे प्राणियो! अनादि संसार से लेकर आजतक पर्याय-पर्याय में ये रागी जीव सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं; वह पद अपद है, अपद है ह ऐसा तुम जानो।
हे भव्यजीवो ! तुम इस ओर आओ, इस ओर आओ; क्योंकि तुम्हारा पद यह है, यह है; जहाँ तुम्हारी शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु स्वयं के रस से भरी हुई है और स्थाईभावत्व को प्राप्त है, स्थिर है, अविनाशी है।
उक्त छन्द में तीन पद दो-दो बार आये हैं ह१.अपद है, अपद है; इधर आओ, इधर आओ; और शुद्ध है, शुद्ध है। इन पदों की पुनरावृत्ति मात्र छन्द के अनुरोध से नहीं हुई है; अपितु इस पुनरावृत्ति से कुछ विशेष भाव अभिप्रेत है। १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १३८