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आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्ध्यात्मको न संदेहः । तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।। १७१ । ।
नियमसार
गुणगुणिनो: भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत् । सकलपरद्रव्यपराङ्गमुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञामात्मेति जानीहि । तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र संदेहो नास्ति । (अनुष्टुभ् )
आत्मानं ज्ञानदृग्रूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं ।
स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फुटम् ।। २८७।। जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो । केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो । । १७२ ।।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “सम्पूर्ण परद्रव्यों से पराङ्गमुख, स्वस्वरूप जानने में समर्थ, सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा को हे शिष्य ! तुम जानो और यह भी जानो कि आत्मा विज्ञानस्वरूप है। ज्ञान और दर्शन ह्र दोनों स्वप्रकाशक हैं । तत्त्व ऐसा ही है, इसमें संदेह नहीं है ।"
इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान, दर्शन और आत्मा तीनों स्व-परप्रकाशक हैं। तीनों अभेद-अखंड ही हैं। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है ।। १७१ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( सोरठा )
आतम दर्शन - ज्ञान दर्श-ज्ञान है आतमा ।
यह सिद्धान्त महान स्वपरप्रकाशे आतमा ॥ २८७ ॥
आत्मा को ज्ञान - दर्शनरूप और ज्ञान-दर्शन को आत्मारूप जानो । स्व और पर ह्र ऐसे तत्त्वों को अर्थात् समस्त पदार्थों को आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है ।
इस छन्द में मात्र इतना ही कहा है कि आत्मा को ज्ञान-दर्शनरूप और ज्ञान - दर्शन को आत्मारूप जानो । तात्पर्य यह है कि आत्मा तथा ज्ञान और दर्शन ह्न सब एक ही हैं। सभी स्वपरपदार्थों को यह आत्मा भलीभाँति प्रकाशित करता है ।। २८७ ॥
विगत गाथा में ज्ञान और आत्मा में अभेद बताया था और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि सर्वज्ञ - वीतरागी भगवान के इच्छा का अभाव है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न