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शुद्धोपयोग अधिकार
तथा चोक्तम् ह्न
णाणं अव्विदिरित्तं जीवादो तेण अप्पगं मुणइ।
जदि अप्पगंण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो।।८३।। अप्पाणं विणुणाणंणाणं विणु अप्पगो ण संदेहो।
तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि ।।१७१।। अपने आत्मा को अवश्य जानता है। यदि यह ज्ञान प्रकट हुई सहज दशा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूप से भिन्न ही सिद्ध होगा।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञान शुद्ध जीव का स्वरूप है। अत: यह आत्मा साधकदशा में स्वयं को अवश्य जानता है। यदि यह ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा ।।२८६।। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘तथा कहा भी है' ह्न ऐसा लिखकर एक गाथा उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) ज्ञान अभिन है आत्म से अत: जाने निज आत्म |
भिन्न सिद्ध हो वह यदि न जाने निज आत्म ||८३|| ज्ञान जीव से अभिन्न है; इसलिए आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा।
इस गाथा में भी मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञान जीव से अभिन्न है; इसलिए वह अपने को जानता है। यदि वह ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा ||८||
विगत गाथा में ज्ञान को जीव का स्वरूप बताया गया है और अब इस गाथा में आत्मा और ज्ञान को अभेद बताया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) आत्मा है ज्ञान एवं ज्ञान आतम जानिये।
संदेह न बस इसलिएनिजपरप्रकाशक ज्ञान दृग ||१७१|| आत्मा को ज्ञान जानो और ज्ञान आत्मा है ऐसा जानो। इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्वपरप्रकाशक हैं।
१. गाथा कहाँ की है, इसका उल्लेख नहीं है।