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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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अभव्याश्च, संसारिण: त्रसा: स्थावराः। द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावराः । भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता ह्यभव्याः।
कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ तीव्र-तर तीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धि: कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा। तत: परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्त्तव्य इति । जीव हवस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय में संज्ञी-असंज्ञी ह्र इसप्रकार त्रस जीव पाँच प्रकार के हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ह्न ये पाँच प्रकार के स्थावर जीव हैं।
भविष्यकाल में स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादि गुणों रूप से भवनपरिणमन के योग्य जीव भव्य हैं और उनसे विपरीत अभव्य हैं।
द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ह्न ऐसे भेदों के कारण अथवा आठ मूल प्रकृति और एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृति के भेद से अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मन्दतर उदय भेदों के कारण अनेक प्रकार हैं।
जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धि ह्न काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है।
इसलिए परमार्थ के जाननेवालों को स्वसमयों और परसमयों के साथ वाद-विवाद करना योग्य नहीं है।"
उक्त गाथा में तो मात्र यही कहा गया है कि जीव अनेक प्रकार हैं, उनके कर्म (ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म और देहादि नोकर्म अथवा कार्य) अनेक प्रकार के हैं और उनकी लब्धियाँ, उपलब्धियाँ भी अनेक प्रकार की हैं; अतः सभी की समझ, मान्यता, विचारधारा एक कैसे हो सकती है ? यही कारण है कि सभी जीवों के परिणामों में विभिन्नता देखी जाती है, मतभेद पाया जाता है; इसकारण सभी को एकमत करना संभव नहीं है, समझाना भी संभव नहीं है; क्योंकि बहुत कुछ सामनेवाले की योग्यता पर ही निर्भर होता है।
यदि तुझे समझाने का भाव आता है तो कोई बात नहीं; अपने विकल्प की पूर्ति कर ले; पर तेरे समझाने पर भी कोई न माने, स्वीकार न करे तो अधिक विकल्प करने से कोई लाभ नहीं। समझाने के विकल्प से किसी से वाद-विवाद करना तो कदापि ठीक नहीं है। न तो अपने मतवाले के साथ और न अन्यमतवालों के साथ विवाद करना कदापि ठीक नहीं है। ___टीकाकार मुनिराज ने नाना जीव का अर्थ करते हुए जीवों के मुक्त और संसारी, संसारियों के त्रस और स्थावरादि भेद गिना दिये अथवा भव्य-अभव्य की बात कर दी।