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नियमसार
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिजो।।१५६।।
नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः।
तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः ।।१५६।। वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिहेतूपन्यासोऽयम् । जीवा हि नानाविधा: मुक्ता अमुक्ता: भव्या
(हरिगीत ) कुशल आत्मप्रवाद में परमात्मज्ञानी मुनीजन। पशुजनों कृत भयंकर भय आत्मबल से त्याग कर। सभी लौकिक जल्पतज सुखशान्तिदायक आतमा ।
को जानकर पहिचानकरध्यासदा निज आतमा ||२६६|| आत्मप्रवाद नामक श्रुत में कुशल परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनों (अज्ञानीजनों) द्वारा किये जानेवाले भय को छोड़कर और सम्पूर्ण लौकिक जल्पजाल को तजकर शाश्वत सुखदायक एक निज तत्त्व को प्राप्त होता है।
इस छन्द में भी यही कहा गया है कि आत्मा के स्वरूप के प्रतिपादक शास्त्रों के अध्येता मुनिवर; अज्ञानियों द्वारा किये गये उपद्रवों की परवाह न करके, लौकिक जल्पजाल को छोड़कर शाश्वत सुख देनेवाले आत्मा की आराधना करते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि हमें आत्मकल्याण करना है तो हमें निज आत्मा की आराधना करना चाहिए।।२६६||
विगत गाथा में सब ओर से उपयोग हटाकर अपने आत्मा के हित में गहराई से लगना चाहिए ह ऐसा कहा था; अब इस गाथा में यह कहते हैं कि स्वमत और परमतवालों के साथ वाद-विवाद में उलझना ठीक नहीं है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही।
अतएव वर्जित वाद है निज पर समय के साथ भी ।।१५६|| जीव अनेक प्रकार के हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और लब्धियाँ भी अनेक प्रकार की हैं। इसलिए साधर्मी और विधर्मियों के साथ वचन-विवाद वर्जनीय है, निषेध करने योग्य है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंग
"यह वचनसंबंधी व्यापार से निवृत्ति के हेतु से किया गया कथन है। जीव अनेक प्रकार के हैं। मुक्त जीव-अमुक्त जीव (संसारी जीव), भव्य जीव-अभव्य जीव । संसारी
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