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नियमसार
(वसंततिलका) अद्वन्द्वनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं ___संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् । किं तैश्च मे फलमिहान्यपदार्थसाथैः
___ मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि नि:स्पृहस्य ।।२३७।। अति अपूर्व निज आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सुख के लिए जो यति यत्न करते हैं; वे वस्तुतः जीवन्मुक्त होते हैं, अन्य नहीं।।
इन छन्दों में यह बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कह दी गई है कि तत्त्व-लोलुपी जीवों को पंचेन्द्रिय विषयों की लोलुपता नहीं होती, पुण्य-पाप के स्वाद की लोलुपता नहीं होती। यही कारण है कि पंचेन्द्रिय विषयों की लोलुपता से दूर तत्त्वलोलुपी जीवों को अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। इसलिए जो जीव अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति करना चाहते हैं; वे जीव पुण्य-पाप कर्म और उनके फल में प्राप्त होनेवाले विषयभोग तथा शुभाशुभभावरूप लोलुपता से दूर रह दृष्टि के विषयभूत ध्यान के एकमात्र ध्येय परमशुद्धनिश्चयनय के प्रतिपाद्य त्रिकाली ध्रुव निज आत्मतत्त्व के लोलुपी बनें, रुचिवन्त बनें, उसी में जमें-रमें; क्योंकि अतीन्द्रिय आनन्द उसके आश्रय से ही प्रगट होता है ।।२३५-२३६।।
इसके बाद समागत सातवाँ छन्द इस अधिकार का अन्तिम छन्द है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत) अद्वन्द्व में है निष्ट एवं अनघ जो दिव्यातमा । मैं एक उसकी भावना संभावना करता सदा ।। मैं मुक्ति का चाहक तथा हूँ निष्पही भवसुखों से।
है क्या प्रयोजन अब मुझे इन परपदार्थ समूह से ।।२३७ ।। जो परमात्मतत्त्व पुण्य-पापरूप अघ से रहित अनघ है और राग-द्वेषरूप द्वन्द में स्थित नहीं है; उस केवल एक की मैं बारंबार संभावना करता हूँ, भावना करता हूँ। संसार सुख से पूर्णत: निस्पृह और मोक्ष की स्पृहावाले मुझ मुमुक्षु के लिए इस लोक में अन्य पदार्थों के समूहों से क्या फल है, क्या लेना-देना है; वे तो मेरे लिए निष्फल ही हैं।
उपसंहार की इस अन्तिम गाथा में उस भगवान आत्मा की शरण में जाने की बात कही गई है; जो पुण्य-पाप के भावरूप अघ से रहित अनघ है और सभीप्रकार के द्वन्दों से रहित अद्वन्दनिष्ठ है।