SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमभक्ति अधिकार ३५९ (अनुष्टुभ् ) अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे। यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।।२३६।। (वीरछन्द) गुरुदेव की सत्संगति से सुखकर निर्मल धर्म अजोड़। पाकर मैं निर्मोह हुआ हूँ राग-द्वेष परिणति को छोड़। शुद्धध्यान द्वारा मैं निज को ज्ञानानन्द तत्त्व में जोड़। परमब्रह्म निज परमातम में लीन हो रहा हूँ बेजोड़।।२३४।। गुरुदेव के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके ज्ञान द्वारा मोह की समस्त महिमा नष्ट की है जिसने ह्र ऐसा मैं अब राग-द्वेष की परम्परारूप से परिणत चित्त को छोड़कर शुद्धध्यान द्वारा एकाग्र शान्त किये हुए चित्त से आनन्दस्वरूप तत्त्व में स्थिर रहता हुआ परमब्रह्म में लीन होता हूँ। इस छन्द में टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव परमब्रह्म में लीन होने की भावना व्यक्त कर रहे हैं। वे अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मुझे यह सर्वोत्कृष्ट परम धर्म पूज्य गुरुदेव के सत्समागम से प्राप्त हुआ, उनके सान्निध्य में रहने से प्राप्त हुआ है। जिनागम का मर्म उनसे समझ कर जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है और जिसे मैंने अपने अनुभव से प्रमाणित किया है; उस ज्ञान के प्रताप से मेरा दर्शनमोह तो नष्ट हो ही गया है, चारित्रमोह की महिमा भी जाती रही; अतः अब मैं राग-द्वेष के पूर्णत: अभाव के लिए शुद्धध्यान द्वारा ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व में स्थिर होता हूँ, परमब्रह्म में लीन होता हूँ। तात्पर्य यह है कि तुम भी यदि मोह का नाश करना चाहते हो, आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रियानन्द को प्राप्त करना चाहते हो तो परमब्रह्म में लीन होने का प्रयास करो। सच्चा सुख प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है ।।२३४।। इसके बाद आनेवाले पाँचवें व छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) इन्द्रिय लोलुप जो नहीं तत्त्वलोलुपी चित्त । उनको परमानन्दमय प्रगटे उत्तम तत्त्व ।।२३५।। अति अपूर्व आतमजनित सुख का करें प्रयत्न | वे यति जीवन्मुक्त हैं अन्य न पावे सत्य ||२३६|| इन्द्रिय लोलुपता से निवृत्त तत्त्व लोलुपी जीवों को सुन्दर आनन्द झरता हुआ उत्तम तत्त्व प्रगट होता है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy