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नियमसार
विविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा । राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः। चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखण्डदधि खंडसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा। आसामपि कथानां परिहारो वाग्गुप्तिः । अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिः । अन्येषां अप्रशस्तवचसां निवृत्तिरेव वा वाग्गुप्तिः इति । तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः ह्न
(अनुष्टुभ् ) एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः।
एष योग: समासेन प्रदीप: परमात्मनः ।।३३॥ ही स्त्रीकथा है; राजाओं का युद्धहेतुक कथन राजकथा है; चोरों का चोर्यप्रयोग संबंधी कथन चोरकथा है और अत्यन्त बढी हई भोजन की प्रीतिपूर्वक मैदा की पूड़ी, चीनी, दही, मिश्री आदि अनेकप्रकार के भोजन की प्रशंसा भक्तकथा अर्थात् भोजनकथा हैह्न इन समस्त कथाओं का परिहार वचनगुप्ति है। असत्य की निवृत्ति भी वचनगुप्ति है अथवा अन्य अप्रशस्तवचनों की निवृत्ति भी वचनगुप्ति है।"
यहाँ वचनगुप्ति के स्वरूप में असत्य और अप्रशस्त बोलने का निषेध तो किया ही गया है, साथ में चार प्रकार की विकथाओं के करने का भी निषेध किया गया है। उक्त चार प्रकार की विकथाओं का पढना-पढाना, सुनना-सुनाना, लिखना-लिखाना आदि तत्संबंधी सभी प्रवृत्तियों का निषेध है।।६७।।
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(सोरठा ) छोड़ो अन्तर्जल्प बहिर्जल्प को छोड़कर।
दीपक आतमराम यही योग संक्षेप में ||३३|| इसप्रकार बहिर्वचनों को त्यागकर अन्तर्वचनों को संपूर्णत: छोड़ें। यह संक्षेप से योग है, समाधि है। यह योग परमात्मा को प्रकाशित करने वाला दीपक है।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि अन्तर्बाह्य वचन विकल्पों के त्यागपूर्वक अपने से जुड़ना योग है, समाधि है। यह योग और समाधि परमात्मा को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान है। तात्पर्य यह है कि आत्मा और परमात्मा के दर्शन इस योग से ही होते हैं, समाधि से ही होते हैं। यही योग व समाधि वचन विकल्पों से परे होने से वचनगुप्ति है||३३|| १. पूज्यपाद : समाधितंत्र, श्लोक १७