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व्यवहारचारित्राधिकार
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थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स । परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ।।६७।।
स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य पापहेतोः।
परिहारो वाग्गुप्तिरलीकादिनिवृत्तिवचनं वा ।।६७।। इह वाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् । अतिप्रवृद्धकामैः कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्रलंभजनित
इस गाथा में मनोगुप्ति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कषायभावरूप कलुषता; आहार, भय, मैथुन और परिग्रहरूप संज्ञा; राग-द्वेष-मोह आदि अशुभभावों के अभाव को मनोगुप्ति कहा गया है।।६६।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) जो जिनेन्द्र के चरणों को स्मरण करे नित।
बाह्य और आन्तरिक ग्रंथ से सदा रहित हैं।। परमागम के अर्थों में मन चिन्तन रत है।
उन जितेन्द्रियों के तो गुप्ति सदा ही होगी।।९१|| जिनका मन परमागम के अर्थों से चिन्तन युक्त है, जो विजितेन्द्रिय हैं, जो बाह्य व अंतरंग परिग्रहों से रहित हैं और जिनेन्द्र भगवान के चरणों के स्मरण संयुक्त है; उन मुनिराजों के गुप्ति सदा ही होगी।
इस छन्द में यही कहा गया है कि परमागम के विषयों में चिन्तनरत, अन्तर्बाह्य परिग्रह से रहित, जिनेन्द्र भक्ति में मग्न, जितेन्द्रयी सन्तों के मनोगुप्ति सदा होगी ही।।९१।।
विगत गाथा में मनोगुप्ति का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में वचनगुप्ति का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) पापकारण राज दारा चोर भोजन की कथा।
मुषा भाषण त्याग लक्षण हैवचन की गप्तिका||६७|| पाप के हेतुभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भक्तकथा आदि रूप वचनों का परिहार अथवा आहारादिक की निवृत्तिरूप वचन वचनगुप्ति है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ वचनगुप्ति का स्वरूप कहा है। बड़ी हुई कामवासनावाले कामुकजनों द्वारा की जानेवाली और सनी जानेवाली महिलाओं की संयोग-वियोजजनित विविध वचन रचना