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________________ 157 156 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व श्रद्धा (रुचि) एवं चारित्र (परिणति) ने भी, अपने ध्रुव स्वभाव को विषय बनाया था, लेकिन उसमें नि:शंकता नहीं वर्तने के कारण, श्रद्धा एवं चारित्र भी सफलता को प्राप्त नहीं होते थे। लेकिन ज्ञान के द्वारा, जब संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रहित, अपने स्वरूप का यथार्थ निर्णय हुआ तो उस निर्णय ने श्रद्धा को भी स्वरूप के प्रति निःशंकता प्राप्त करा दी, फलस्वरूप चारित्र का भी उसी में जमने-रमने के लिए उत्साह तीव्र हो जाता है। इसप्रकार आत्मा के ज्ञान-श्रद्धान एवं चारित्र तीनों एकरूप होकर, एकमात्र अपने स्वरूप प्राप्त करने के लिए स्वलक्ष्यी पुरुषार्थ में ही संलग्न हो जाते हैं। ऐसी दशा तक मिथ्यात्व का अभाव तो नहीं होता लेकिन मिथ्यात्व क्षीण हो जाने से यह जीव निश्चितरूप से करणलब्धि पारकर निर्विकल्प आत्मानुभूति प्राप्त करेगा, इस दशा को व्यवहार से निश्चय सम्यग्दर्शन तथा सविकल्प स्वसंवेदनज्ञान भी कहा है। समापन संसारी जीवको संसार परिभ्रमण का अभाव करने हेतु प्रारम्भिक उपाय एकमात्र सम्यग्दर्शन प्रगट करना है। सम्यग्दर्शन निर्विकल्प आत्मानुभूति के द्वारा ही प्रगट होता है। वह अनुभूति अन्तर्लक्ष्यी पुरुषार्थ में ही प्रगट होती है। अन्तर्लक्ष्यी पुरुषार्थ अपने ज्ञायक ध्रुवभाव में अपनापन उत्पन्न हुए बिना नहीं होता और ज्ञायक का स्वरूप समझकर, रुचि एवं परिणति (गर्भित शुद्धता) की उग्रता सहित निःशंक श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना ज्ञायक में अपनत्व नहीं होता। अत: उसके समझने का सत्यार्थ मार्ग मिल जाना इस काल में महान-महान दुर्लभ है। इस काल में ज्ञानी पुरुषों का समागम ही दुर्लभ है; उनके अभाव में जिनवाणी में से सत्यार्थ मार्ग खोजकर निकाल लेना तो और भी कठिन है। ऐसी कठिन परिस्थिति में प्रात:स्मरणीय पूज्यश्री कानजीस्वामी निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व का जन्म हुआ उन्हीं के उपदेशों से सत्यार्थ मार्ग प्राप्त हुआ और वही मार्ग यथार्थ रुचिपूर्वक अपनाकर, जिनवाणी के अध्ययन एवं चिंतनमननपूर्वक पल्लवितकर, अपनी परिणति में प्रयोगकर, जो भी प्राप्त हुआ, उस अनुभव के आधार पर, उसी मार्ग को सुखी होने के उपाय पुस्तकमाला के आठ भागों में संकलित किया है। द्वादशांग का सार तथा समस्त पुरुषार्थ का फल तो शुद्धात्मानुभूति प्राप्त करना है। ऐसी आत्मानुभूति प्रगट करने योग्य अन्तर्परिणति के पुरुषार्थ की चर्चा भी संक्षेप से इस पुस्तक में एवं सुखी होने के उपाय के भाग ८ में आ गई है। इस पंचम काल में सभी जीव मिथ्यात्व सहित ही जन्म लेते हैं। फिर यथार्थ मार्ग समझकर सत्यार्थ पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेने वाली आत्मा बहुत विरल ही होती है अत: सत्यार्थ मार्गदर्शक मिलना ही बहुत कठिन है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान काल में सत्यार्थ मार्ग प्राप्ति होना तो अत्यन्त दुर्लभ अवश्य है। हर एक आत्मार्थी का ध्येय तो सिद्ध परमात्मा बनने का ही होता है। वीतरागता के बिना सिद्धदशा प्राप्त नहीं होती। वीतरागता का जन्म त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व में अपनापन आये बिना नहीं होता। इसलिये आत्मार्थी का उद्देश्य तो ज्ञायकभाव में अपनत्व स्थापन कर, अन्तर्परिणति में वीतरागता उत्पन्न करने का ही होता है। इसलिये सत्यार्थ मार्ग वही है जिसके अपनाने से परिणति में वीतरागता उत्पन्न हो। आत्मार्थी को इस मापदण्ड से पहिचानकर, मार्ग की सत्यार्थता परख (जाँच) लेना चाहिये। आचार्य अमृतचन्द्र ने सब शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता बताया है अर्थात् द्वादशांग का सार एक मात्र वीतरागता है। वर्तमान काल में सत्यार्थ मार्ग प्रदाता ज्ञानी पुरुषों का समागम
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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