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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व समय का है अतः कम से कम काल लगे तो असंख्य समय में तो आत्मदर्शन हो ही जाता है। इसी क्रिया को पक्षातिक्रान्त भी कहा जाता है। आत्मदर्शन से मार्ग के प्रति अपार महिमा जाग्रत होकर अकाट्य और निःशंक श्रद्धा हो जाती है; फलतः समस्त प्रकार की भटकने समाप्त हो जाती हैं तथा परिणति को सब ओर से निःशंकतापूर्वक समेटकर, आत्मा में एकाग्रतापूर्वक निर्विकल्प होकर दर्शनमोह का अभाव कर देता है। इसप्रकारं सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का सहज सरलतम सर्वोत्कृष्ट संक्षेप मार्ग अपनाकर आत्मदर्शन कर कृतकृत्य हो जाता है।
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प्रायोग्यलब्धि के पुरुषार्थ का प्रकार
प्रश्न- प्रायोग्य में ज्ञान स्वलक्ष्यी होकर कार्य करने लगे इसके लिए पुरुषार्थ किस प्रकार वर्तता है ?
उत्तर - जिसप्रकार विवाह के इच्छुक व्यक्ति के सगाई होने के पूर्व, रुचि के पृष्ठबल सहित, अनेक बालिकाओं के आकर्षण समाप्त होकर, मात्र एक बालिका में सीमित हो जाते हैं। तत्क्षण ही भटकता हुआ ज्ञान भी सिमटकर उस एक ही बालिका में सीमित हो जाता है। उसीप्रकार अभी तक जो आत्मार्थी भी क्रमशः बढ़ती हुई रुचि की उग्रता एवं परिणति की विशुद्धतापूर्वक, आत्मस्वरूप समझकर निर्णय करने में आगमअभ्यास, सत्समागम, चिन्तन-मनन आदि कार्यों में संलग्न रहता था, ज्ञान निरन्तर प्रमाण नय आदि तथा तर्क युक्तियों द्वारा निर्णय करने के लिए व्यग्र रहता था, वही आत्मार्थी यथार्थ निर्णय कर लेने पर अपने आत्मस्वरूप में सिमट जाता है। खोजने की व्यग्रता समाप्त होकर वृत्ति आत्मसन्मुख हो जाती है तथा श्रद्धा - ज्ञान और चारित्र तीनों का विषय एक हो जाता है। उपरोक्त स्थिति तो देशनालब्धि की चरमदशा की द्योतक है। इस स्थिति प्राप्त आत्मार्थी की क्रमशः
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
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बढ़ती हुई रुचि की एवं परिणति की विशुद्धता (गर्भित शुद्धता) जो कि क्षयोपशमलब्धि के काल से ही धारावाहिक रूप से बढ़ती आ रही थी सबका विषय भी एक ही था, लेकिन फिर भी ज्ञान तो समझने के लिए भटकता रहता था, अब उसका भी विषय रुचि एवं परिणति के साथ होकर तीनों का विषय एक ही हो जाता है। अत: इस स्थिति अर्थात् प्रायोग्यलब्धि के काल में तो श्रद्धा ज्ञान चारित्र तीनों आत्मस्वरूप प्राप्त करने में संलग्न हो जाते हैं। अतः तीनों की एकता होने से यहाँ से पुरुषार्थ का प्रकार ही बदल जाता है देशनालब्धि तक तो ज्ञान परलक्ष्यी होकर कार्यरत था। जिसप्रकार विवाह इच्छुक पुरुष का ज्ञान, सगाई होने तक तो अनेक कन्याओं में भटकता था लेकिन सगाई होते ही रुचि एवं परिणति के साथ ज्ञान भी उस एक ही कन्या में मर्यादित हो जाता है। अब तो उसका ज्ञान, उस ही कन्या की विशेषताओं को खोजकर विकसित करने के उपायों सहित शीघ्र सम्मिलन प्राप्त करने
लिए आतुर हो जाता है। इस स्थिति में अन्य विचार आ भी जावे तो उनकी ओर से अपने को व्यावृत्य कर लेने की ही चेष्टा करता है; उस ओर की अरुचि वर्तती है। इसप्रकार तीनों की एकता होकर वर्तती हुई प्रवृत्ति ही, विवाह होकर सम्मिलन करने का कारण बनती है।
इसीप्रकार जिस आत्मार्थी ने देशना की चरमदशा पर श्रद्धा ( रुचि ) ज्ञान एवं चारित्र (परिणति ) का विषय एक अपना त्रिकालीज्ञायकध्रुवतत्त्व बना लिया हो अर्थात् एकत्व करने को तत्पर हो गया हो; ऐसे आत्मार्थी का ज्ञान भी संशय विपर्यय-अनध्यवसाय रहित होकर सब ओर से सिमटकर, निर्णय के विषय को ही स्व के रूप में मान लेने से, रुचि की उग्रता और भी तीव्र हो जाती है; साथ ही चारित्र भी निःशंक होकर, अपने स्वरूप में ही तन्मय होने के लिए चेष्टित हो जाता है। ऐसी दशा का प्रारम्भ होना ही वास्तव में प्रायोग्यलब्धि में प्रवेश है। ज्ञान के यथार्थ निर्णय पर पहुँचने के पूर्व,