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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व पर्यायों के भेद जिनको पर तो नहीं माना जा सकता; परन्तु उनके लक्ष्य से विकल्प (राग) उत्पन्न होता है। अतः भेदरूपी व्यवहार जिसको सद्भूत अनुपचरित नय का विषय कहा गया है। उनका सद्भाव भी निर्विकल्प आत्मानुभूति प्रगट होने में बाधक है। अतः ज्ञायक स्वभावी आत्मतत्त्व में अनंत गुण एवं उनकी निर्मल पर्यायें तो अभेद रूप से परिणमते रहते ही हैं । ज्ञायकभाव का ही सब अभिनंदन करते हैं। अतः द्रव्य के अभेद अस्तित्व और अभेद परिणमन में सभी अभेद रहते ही हैं। इसप्रकार भेद विकल्प निरर्थक ही हैं, क्योंकि ज्ञायक भी ज्ञान, ज्ञान भी ज्ञान और ज्ञेय भी ज्ञान होने से तथा ज्ञान का ज्ञायक के साथ तादात्म्य होने से ऐसा भेद भी निरस्त हो जाता है। ऐसा ज्ञायक ही मैं हूँ । ज्ञायक ही मेरा अस्तित्व है। अद्वैत रूप एक ज्ञायकस्वभाव में ही एकाग्रता होने से सर्व सिद्धि है।
आत्मार्थी ने सर्वप्रथम अपने आत्मा में सिद्ध भगवान की स्थापना कर उनके सिद्धत्व को अपने ध्रुव में स्थापन कर, सिद्ध भगवान बनने का संकल्प करके साधना प्रारंभ की थी। तात्पर्य पूर्णता के लक्ष्य से साधना प्रारंभ की थी। उसका मार्ग समझने के लिये श्रीगुरु का एवं जिनवाणी का शरण लेकर देशनालब्धि द्वारा यथार्थ मार्ग समझा और मार्ग समझकर निष्कर्ष रूप में उपरोक्त निर्णय पर पहुंच गया। इसप्रकार सब अवरोधों को पार कर देशनालब्धि की चरम सीमा पर पहुंच जाता है । देशनालब्धि में आत्मार्थी परलक्ष्यी विकल्पात्मक ज्ञान में उपरोक्त निर्णय कर लेता है। यह निर्णय ही देशनालब्धि का चरम निर्णय है। परलक्ष्यी ज्ञान में अब कुछ करना बाकी नहीं रहता । उपरोक्त निर्णय को क्रियान्वित करने का कार्य परलक्ष्यी ज्ञान से संभव नहीं होता। ज्ञान के स्वलक्ष्यी होने पर ही प्रायोग्यलब्धि प्रारंभ होती है।
उपरोक्त समस्त चर्चा ज्ञान के क्षयोपशम के निर्णय की
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
मुख्यतापूर्वक की गई है। लेकिन निर्णय का पृष्ठबल तो पूर्णता प्राप्त करने की रुचि की उग्रता एवं परज्ञेयों का आकर्षण तोड़कर अपने ज्ञायक का आकर्षण बढ़ाने वाली परिणति की वृद्धि तथा तत्संबंधी पुरुषार्थ मुख्य कार्यकारी होते हैं। रुचि विहीन परिणति तथा ज्ञान के क्षयोपशम का निर्णय कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता । अज्ञानदशा में कर्तृत्वबुद्धि का पृष्ठबल तो रहता ही है, अतः क्षयोपशमिक ज्ञान के निर्णय करने में कुछ किया हो ऐसा लगने में कार्य तो सरल लगता है। साथ ही निर्णय करने में थोड़ी कषाय मंदता होना भी अनिवार्य होता है, इसलिये उसमें संलग्न हो जाता है। और ऐसा मानता है कि ऐसा निर्णय करना ही मुक्ति का मार्ग है। फलतः रुचि एवं परिणति का महत्व बहु भाग आत्मार्थियों को नहीं रहता और वे भूल जाते हैं कि समझने में तो ज्ञान परलक्ष्यी रहकर ही कार्य करता है और आत्मानुभव तो ज्ञान के स्वलक्ष्यपूर्वक स्वरूप में एकाग्र होने पर ही होता है। तात्पर्य यह है कि मात्र ज्ञान का निर्णय ही आत्मानुभव नहीं
करा सकता।
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परलक्ष्यी ज्ञान द्वारा तो स्व एवं पर का स्वरूप समझकर रुचि को उग्रकर ज्ञायक में अपनापन स्थापन कर एवं उसमें आकर्षण बढ़ा कर, ज्ञान स्वलक्ष्यी होकर, ज्ञायक में एकाग्र होने का पुरुषार्थ ही, आत्मानुभव प्राप्त करा सकता है; मात्र निर्णय नहीं । निर्णय तो मार्गदृष्टा है, लेकिन मार्ग पर गमन कर प्राप्त करने का कार्य तो रुचि एवं परिणति से ही होगा। अन्य कोई उपाय है नहीं।
तात्पर्य यह है कि यह उपरोक्त प्रकार का सत्यार्थ निर्णय ही देशनालब्धि की चरमदशा का निर्णय है। ऐसे निर्णय के द्वारा ज्ञायक ध्रुव में ही अपनेपन की श्रद्धा जाग्रत होकर, एक ज्ञायक ही आकर्षण का केन्द्र रहकर, रुचि एवं परिणति का जोर ज्ञान को स्वरूप में एकाग्रता