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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व करने को बाध्य कर देवे, ऐसा उग्र पुरुषार्थ ही आत्मार्थी को प्रायोग्यलब्धि में प्रवेश करा देगा।
उपरोक्त किये गये निर्णय का अस्तित्व तो प्रायोग्यलब्धि में वर्तनेवाले ज्ञान में बना रहता है। उस निर्णय को बार-बार स्मृति में नहीं लाना पड़ता; क्योंकि वह निर्णय श्रद्धा में भी प्रवेश कर गया है।. प्रायोग्यलब्धि में तो रुचि इतनी उग्र होती है कि इसी क्षण निर्विकल्प होकर आत्मानुभव कर लेवे, लेकिन जब तक अनंतानुबंधी का आत्यन्तिक अभाव होकर परिणति इतनी बलिष्ठ नहीं हो जाती कि एकाग्र हो सके, तब तक आत्मानुभव नहीं होता। प्रायोग्यलब्धि के काल में रुचि की उग्रतापूर्वक मुख्यतया ज्ञान स्वलक्ष्यी बना रहेगा अर्थात् ज्ञायक में एकाग्र होने के पुरुषार्थ की जितनी उग्रता होगी, उतनी ही शीघ्र अनन्तानुबंधी का अभाव होकर करणलब्धि पार कर आत्मानुभूति के द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट हो जावेगा। ऐसी दशा वर्त रहना ही प्रायोग्यलब्धि है।
उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्टी का सविकल्प से निर्विकल्प होने का विधान वाला प्रकरण एवं उस पर किये गये पूज्य श्री कानजीस्वामी के प्रवचन जो अध्यात्म संदेश के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं; उनका मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिये ।
प्रवचनों में पूज्य स्वामीजी ने सविकल्प से निर्विकल्प होने की विधि के १४ स्टेजों को पार करने पर प्राप्त होने का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । इसके अतिरिक्त प्रवचनसार की गाथा ८० की टीका एवं तत्सम्बंधी स्पष्टीकरण तथा समयसार ग्रंथ गाथा १४३-१४४ की टीका के साथ संवर अधिकार एवं समयसार परिशिष्ट के अध्ययन से भी आत्मार्थी को अपने निर्णय की समीचीनता के ऊपर विश्वास होकर मार्ग पर श्रद्धा निःशंक होगी एवं रुचि में उग्रता आकर परिणति भी पर की ओर से सिमटकर आत्मलक्ष्यी होने से सफलता भी शीघ्र प्राप्त होगी।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
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प्रायोग्यलब्धि में सावधानी
जिनवाणी का कथन है कि प्रायोग्यलब्धि में पहुंच कर भी, अगर, रुचि में जरा भी परिवर्तन आ गया तो दुर्लभातिदुर्लभ प्रायोग्यलब्धि जैसा अवसर प्राप्त कर भी मिथ्यादृष्टि ही बना रहता है; सम्यक्त्व की सन्मुखता भी नहीं रहती। ऐसे जीव का ज्ञान में निर्णय तो यथावत् बना रहता है; लेकिन रुचि परिवर्तित हो जाने से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
प्रश्न - रुचि में कैसा परिवर्तन आ जाता है ?
उत्तर - रुचि से भ्रष्ट होनेवाला जीव लक्ष्य से भ्रष्ट होकर परज्ञेयों अपनेपन की बुद्धि आदि के द्वारा रुचि में परिवर्तन कर लेता है। मंद कषाय के भावों में संतोषवृत्ति उत्पन्न हो जाने से रुचि का विषय बदलकर, ज्ञाने से भ्रष्ट हो जाता है। फलस्वरूप दुर्लभातिदुर्लभ अवसर हाथ से चला जाता है। इसलिये आत्मार्थी को बहुत सावधान रहते हुए रुचि के विषय के प्रति जरा भी ढीलापन नहीं आने देना चाहिये। रुचि के ढ़ीला होते ही परिणति भी तत्क्षण साथ छोड़ देती है।
पण्डित टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी एवं अध्यात्म संदेश पूज्य श्रीस्वामीजी के प्रवचनों में बताया है कि आत्मार्थी जब यथार्थ पुरुषार्थ करता है और प्रायोग्यलब्धि की चरमदशा के समीप पहुंचता है। तब कषाय इतनी मंद हो जाती है कि उसको विशेष प्रकार की प्रसन्नता अर्थात् आकुलता की अत्यन्त कमी के अनुभव रूप प्रसन्नता उत्पन्न होती है, उस समय रोमांच भी हो जाता है, लेकिन यह दशा भी सविकल्प दशा में होनेवाली मंदता है, निर्विकल्प दशा का आनंद नहीं है। अतः परिपक्व आत्मार्थी भी इस दशा को निर्विकल्प दशा का आनन्द मानकर संतोषवृत्ति कर, लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाते हैं। और अमूल्य