SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व एक देखिए जानिये रमि रहिये इकठौर । समल विमल न विचारिये यही सिद्धि नहिं और ॥ २०॥ समयसार गाथा ६ का भी यही अभिप्राय है - गाथार्थ - जो ज्ञायकभाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है; इसप्रकार इसे शुद्ध कहते हैं; और जो ज्ञायकभाव से ज्ञात हुआ वह तो वही है, अन्य कोई नहीं ॥६॥ निष्कर्ष इसप्रकार विकल्पात्मक ज्ञान में आत्मार्थी इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि अनादि काल से मैंने आत्मा को अनेक शरीरादि परद्रव्यों का स्वामी मान रखा था, लेकिन वे मेरी आज्ञानुसार नहीं चलते तथा इनके द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव सभी मेरे से भिन्न हैं और इस भव में ही मेरा साथ छोड़ देते हैं, अतः उनमें मेरेपने की मान्यता मिथ्या थी । मैं तो सिद्ध स्वभावी ध्रुव ज्ञायक हूँ, इनका जानना भी मेरी ही पर्याय है, उपचार से मात्र ज्ञाता ज्ञेय संबंध कहा जा सकता है। इसलिये इनमें मेरा अपनापन नहीं रहा; मैं तो एक ज्ञायक तत्त्व हूँ। ऐसे निर्णय के द्वारा असद्भूत उपचरित नयों के विषयों से अपनत्व का अभिप्राय छोड़ देता है। इसके साथ आत्मा में उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के शुभाशुभ भावों के संबंध में विचार कर उनसे भी अपनेपन का संबंध तोड़ने का प्रयास करता है। मैं तो सिद्धस्वभावी ध्रुव ज्ञायक आत्मा हूँ; मेरे भंडार में तो विकार का अस्तित्व ही नहीं है और जिन द्रव्यों को अपना मानता था, उनमें भी विकार का अस्तित्व नहीं है। और मेरी पर्याय की ओर देखा जाए तो उसका अस्तित्व न तो पूर्व समयवर्ती पर्याय में था और न आगामी समय उत्पन्न होनेवाली पर्याय में है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 145 निष्कर्ष है कि विकार तो मात्र वर्तमान की एक समयवर्ती पर्याय में ही उत्पन्न होता है और नष्ट भी हो जाता है। अतः ऐसी पर्याय मेरी कैसे हो सकती है, इसलिये पर ही है, मैं तो पर्यायों रूप नहीं हूँ । विकार 'की उत्पत्ति का कारण तो परज्ञेयों में अपनापन मानना है। अज्ञान दशा में मैंने ही पर को अपना मानकर उनका अपने में संयोग कर लिया । अगर परज्ञेय रूप में जानता तो संयोग मेरे में नहीं होता फलस्वरूप संयोगी भाव अर्थात् शुभाशुभ भाव भी उत्पन्न नहीं होते। तथा संयोगी भावों के साथ निमित्त नैमित्तिक संबंध के कारण उत्पन्न होने वाले द्रव्यकर्मों का बंध भी नहीं होता- ऐसा होने पर भविष्य के संसार निर्माण की श्रृंखला ही समाप्त हो जावेगी तथा सहजरूप से द्रव्यकर्मों का संबंध भी छूट जावेगा अर्थात् उनका नाश हो जावेगा । तात्पर्य यह है कि त्रिकाली ज्ञायक सिद्धस्वभावी ध्रुव तत्त्व में अपनापन होने मात्र से समस्त संयोग, संयोगी भाव एवं द्रव्यकर्मों, भावकर्मों में स्वामित्व, कर्तृत्व भोक्तृत्व तथा एकत्व - ममत्वबुद्धि समाप्त हो जाती है। इसप्रकार विकारी पर्याय का कर्ता मैं नहीं रहता उनके कर्ता या तो वे संयोग अथवा निमित्तरूप होनेवाले द्रव्यकर्म हों अथवा उन-उन पर्यायों की तत्समयवर्ती योग्यता उत्पादक हो। मैं तो उनका कर्त्ता नहीं हूँ, मात्र ध्रुव ज्ञायक हूँ । आत्मार्थी अपने विकल्पात्मक ज्ञान में ऐसा निर्णय कर, उन सबकी ओर से अपनी परिणति को समेटकर एकमात्र स्वद्रव्य की ओर लक्षित कर लेता है। उपरोक्त सबके कर्तृत्व के भारी बोझ से निर्धार हो जाता है। इसप्रकार असद्भूत अनुपचरित एवं सद्भूत उपचरित विषयों से अपनत्वबुद्धि छूटकर, त्रिकाली ज्ञायकतत्त्व में अपनत्व बुद्धि स्थापन कर लेता है। लेकिन अब स्व के ही अंश ऐसे शुद्ध गुण एवं निर्मल
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy