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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
(अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्व के साथ एकत्व रूप से लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्व रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता है, वह स्वसमय है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब वह अनादि अविद्यारूपी केले की मूल की गांठ की भांति (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार प्रवृत्ति की अधीनता से दर्शन - ज्ञान स्वभाव में नियतवृत्ति रूप आत्मतत्त्व से छूटकर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकत्वरूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गल कर्म के (कार्माण वर्गणा रूप) प्रदेशों में स्थित होने से युगपद् पर को एकत्व पूर्वक जानता और परद्रव्य में एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ परसमय है। इसप्रकार प्रतीति की जाती है। इसप्रकार जीव नामक पदार्थ की स्वसमयपरसमयरूप द्विविधता प्रगट होती है। "
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ज्ञान को सब ओर से समेटकर ज्ञान को उपरोक्त गाथा की टीका को एकाग्रता पूर्वक अध्ययन करें तो इसमें आत्मा को परमात्मा बनाने का सरलतम एवं संक्षिप्त उपाय बता दिया है। समस्त जिनवाणी का सार यही मार्ग है ।
आचार्य श्री बताते हैं कि आत्मा का स्वरूप दर्शन - ज्ञान स्वभावी है। ऐसे आत्मतत्त्व का स्वभाव ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में ही रहने रूप (अस्तित्वरूप) है, उसमें जो अपनापन अर्थात् एकत्व कर लीनता पूर्वक परिणमन करे वह स्वसमय है, और जो उक्त आत्मतत्त्व से अपनापना छोड़कर, संयोग एवं संयोगीभाव रूप पर को अपना मानकर उनके साथ एकत्वपूर्वक लीन होकर प्रवृत्ति करता है, वह परसमय अर्थात् मिथ्यादृष्टि संसारमार्गी है।
तात्पर्य यह है कि आत्मतत्त्व तो ज्ञाता दृष्टा स्वभावी है, वह स्वलक्ष्यी ज्ञान का ही विषय है। और दूसरी ओर संयोग एवं संयोगीभाव
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
हैं जो कि परलक्ष्यी ज्ञान के ही विषय हैं। इनमें जो स्व-प्रकाशक ज्ञान के विषय में अपनापन मानते हुए एकत्वपूर्वक लीन होकर प्रवृत्ति करता है वह स्वसमय होकर सिद्ध बन जाता है। और जो पर प्रकाशक ज्ञान के विषय ऐसे संयोग एवं संयोगीभावों में अपना मानते हुए, एकत्वपूर्वक लीन होकर प्रवृत्ति करता है, वह परसमय रहकर संसार परिभ्रमण करता है।
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प्रश्न- जब ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में स्थित रहना आत्मा का स्वभाव ही है तो जीव उसको छोड़ क्यों देता है ? आचार्यश्री इसी टीका में उत्तर देते हैं कि अज्ञानी अनादि से श्रृंखलाबद्ध, मिथ्या मान्यता रूप अविद्या से उत्पन्न हुआ द्रव्यमोह उसके उदय अनुसार उत्पन्न हुई पर में अपनेपने की मान्यता (भावमोह) रूप प्रवर्तता है, तब दर्शनज्ञान स्वभावी आत्मतत्व को छोड़कर, संयोग एवं मोह रागादि भाव, को अपना मान उनके साथ एकत्वपूर्वक लीन होकर प्रवृत्ति करता है। इसप्रकार परसमय होने का कारण भी बता दिया है।
इसी टीका में आचार्यश्री ने अनादि से चली आ रही श्रृंखला को तोड़ने का उपाय एवं केवलज्ञान उत्पन्न होने का उपाय, ऐसी भेदज्ञान ज्योति का उदय बता दिया है। वह भेदज्ञान ज्योति कैसी है कि सर्व पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करनेवाली है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान के स्व पर प्रकाशक स्वभाव के विषय स्व एवं परपदार्थ समस्त होते हैं, और सब ज्ञान में प्रकाशित हैं; अतः संवरपूर्वक होने वाले ज्ञान में स्व तो स्व के रूप में प्रकाशित होता है और पर वे पर के रूप में प्रकाशित होते हैं; और भेदज्ञानी आत्मा का स्व में स्वपना वर्तता है; अतः स्व को स्व मानता हुआ, उसी में एकत्वपूर्वक लीन होकर प्रवृत्त होता हुआ श्रद्धा ज्ञान चारित्र की पूर्णता प्राप्त कर स्वयं परमात्मा होकर केवलज्ञान प्रगट कर लेता है।
यह ध्यान रखने योग्य है कि अज्ञानी द्वारा किये जाने वाले