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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व भेदज्ञान के विकल्प की यह चर्चा नहीं है क्योंकि उसको तो पर में अपनापन है। अत: उसको तो स्वप्रकाशक ज्ञान का विषय प्रगट ही नहीं हुआ, वह भेद किससे व कैसे करेगा? चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मार्थी को तो स्व में स्वपना प्रगट हो जाने से सहजरूप से विकल्पात्मक दशा में भी भेदज्ञान वर्तता रहता है। वह संवरपूर्वक भेदज्ञान होता है। अज्ञानी को भी ज्ञानी बनने के अभ्यास में ऐसे भेदज्ञान संबंधी विकल्प उत्पन्न होते अवश्य हैं, लेकिन वे अभ्यास क्रम में सहजरूप से होते हैं। लेकिन जो रुचि विहीन के प्रयत्नपूर्वक विकल्प उठाये जाते हैं, वे कार्यकारी नहीं होते। उनसे कषाय मंदता होने से पुण्यबंध हो जावेगा, लेकिन ज्ञानी बनने के लिए वे कार्यकारी नहीं होंगे। रुचि सहित के विकल्प तो पर की ओर से वृत्ति को समेटने के अभ्यास क्रम में सहज होते हैं। अत: विकल्पों को साधन मानकर उनमें संलग्न रहना वास्तविक मार्ग से भ्रष्ट होना है। इसलिये आत्मार्थी को सावधान रहना चाहिये।
उपरोक्त विवेचन का सार है कि भगवान सिद्ध का आत्मा तो द्रव्य से शुद्ध, गुणों से शुद्ध एवं पर्याय से भी शुद्ध ऐसा शुद्ध प्रमाण रूप द्रव्य है, ऐसे आत्मा को गुण भेदों से निरपेक्ष देखा जाये तो वह, “दर्शनज्ञान स्वभाव में नियतवृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वही है; आत्मा के अनन्तगुण इस ही स्वभाव का अभिनन्दन करते हैं। ऐसा आत्मतत्त्व ही जीव का स्व तत्त्व है। आत्मा का ज्ञानस्व-पर प्रकाशक है। इसलिये ऐसे आत्मतत्त्व को स्व जानकर, उसी में अपनापन स्थापन कर उसी में लीन होकर परिणमन करे तो वह आत्मा स्वसमय है। इसी की पूर्णता को प्राप्त अरहंत भगवान साक्षात् स्वसमय हो गये।
उपरोक्त प्रकार का अज्ञानी आत्मा भी है, वह भी “दर्शनज्ञानस्वभाव में नियतवृत्तिरूप आत्मतत्त्व" है; लेकिन उसने अनादि
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
141 से उक्त आत्मस्वभाव को स्व मानने के विपरीत परज्ञेयों में ही अपनापना माना हुआ है। आत्मा का ज्ञान तोस्व-पर प्रकाशक है, लेकिन अज्ञानी का पर में अपनापन मानने से ज्ञान भी पर को ही स्व जानता है, चारित्र भी पर में ही लीन होने की चेष्टा करने लगता है। इसप्रकार अज्ञानी परसमय होने से संसार परिभ्रमण ही करता रहता है।
ऐसा सम्यक्त्व सन्मुख आत्मार्थी जब उपरोक्त यथार्थ स्वरूप समझकर, मार्ग की स्पष्टता, सरलता एवं सहजता समझ लेता है, तब उसकी अन्तरंगरुचि एवं पुरुषार्थ तीव्र हो जाता है। और परिणति भी सब
ओर से सिमटकर आत्मलक्ष्यी हो जाती है, ऐसी दशा में मिथ्यात्वअनन्तानुबंधी और भी क्षीण (निर्बल) हो जाते हैं। ऐसा अब वह अपने आत्मस्वभाव में एकाग्र होने की चेष्टा करता है। इसप्रकार आत्मार्थी शीघ्र ही प्रायोग्यलब्धि में पदार्पण करने के योग्य हो जाता है।
अनेक बाधाओं को पार करने के पश्चात् ऐसी स्थिति बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुई है, लेकिन कोई दीर्घ संसारी इस स्थिति पर पहुँचने पर भी पर में अपनत्व एवं सुख बुद्धि रुचि की रखता है तो हाथ में आया चिंतामणिरत्न समुद्र में फेंकने के समान अवसर खो देता है। इसलिये उपरोक्त स्थिति में पहुंचने पर, बहुत सावधानी वर्तनी चाहिये, संतुष्ट होकर रुचिको किञ्चित् भी ढ़ीला नहीं होने देना चाहिये। विश्राम के लोभ में नहीं फंसकर, रुचि एवं पुरुषार्थ को आत्मलक्ष्यी रख स्वभाव के आकर्षणपूर्वक परिणति को बनाये रखना चाहिए। पर की ओर किश्चित् भी आकर्षित नहीं होने देना चाहिये।
प्रायोग्यलब्धि के पूर्व का निर्णय
आत्मार्थी ने पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत की है। पूर्णता का मार्ग समीप दिखने पर रुचि एवं पुरुषार्थ की उग्रता तथा परिणति में पर