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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व इसप्रकार आत्मार्थी के विकल्पात्मक श्रद्धा एवं ज्ञान के निर्णय में स्व के रूप में तो मात्र अपना ध्रुव रह गया। वही श्रद्धा का श्रद्धेय हो गया। बाकी सब में परपने की श्रद्धा प्रगट हो जाने से समस्त ज्ञेयों के परिणमनों के प्रति मध्यस्थपने का भाव सहजरूप से जाग्रत हो जाता है।
विचारता है कि मेरी आत्मा के प्रदेशों में जिनका अस्तित्व ही नहीं है, वे मेरे कैसे माने जा सकते हैं उनके परिणमनों (पर्यायों) का स्वामी उनका द्रव्य है, उनके परिणमन उनकी योग्यता के अनुसार परिणमेंगे व परिणम रहे हैं; उनमें मेरा हस्तक्षेप कैसे सफल हो सकेगा ? वे स्वयं स्वतंत्र सत्ताधारी पदार्थ हैं, उनमें कुछ कर तो सकता ही नहीं। अत: उनमें कर्तृत्व का अभिप्राय भी झूठा है; अत: उनके परिणमनों के प्रति उपेक्षित ही रहना चाहिये, वास्तविकता तो यह है कि उनके जानने की इच्छा भी निरर्थक है। आत्मा में तो सभी का अत्यन्ताभाव है आदिआदि विचारों द्वारा अपने निर्णय एवं श्रद्धा को प्रगाढ़ करता रहता है।
___ उपरोक्त विचार ऐसे सम्यक्त्व सन्मुख आत्मार्थी के होते हैं; जो अभी गृहस्थाश्रम में रहता हुआ, अपने कुटुम्ब पालन हेतु व्यापारधंधे में लगा रहता है। सभी के पाप-पुण्य का उदय समान नहीं होता, प्रतिकूल संयोगों के संघर्ष में व्यस्त भी रहता है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में जूझता दिखता हुआ भी, उपरोक्त प्रकार के विचारों के द्वारा निर्णय एवं ज्ञान-श्रद्धान को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए, अपनी रुचि एवं पुरुषार्थ को उत्तरोत्तर बढ़ाता रहता है।
वर्तमान में उसका उदाहरण धर्मात्मा पुरुष श्री निहालचंदजी सोगानी का है। प्रतिकूल संयोगों की विद्यमानता में भी उनने निर्विकल्प आत्मानुभूति प्राप्त कर ली। इसलिये आत्मार्थी की अन्तरंग रुचि एवं पुरुषार्थ को किसी प्रकार के संयोग बाधक नहीं होते। उसकी श्रद्धा होती है कि संयोग तो परद्रव्य है, मेरे आत्मा के साथ उनका कुछ संबंध नहीं है; उनका तो मेरे में अत्यन्ताभाव वर्तता है आदि-आदि।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
137 इसप्रकार के निर्णयों के द्वारा श्रद्धा को दृढ़ करता हुआ आत्मार्थी, ध्रुव ओर की रुचि को उग्र करता है। ऐसी रुचि से परद्रव्यों के प्रति सहजरूप से आकर्षण घट जाता है। फलत: आत्मशुद्धि में भी वृद्धि होकर, मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी का रस अपेक्षाकृत और भी क्षीण हो जाता है।
आत्मार्थी का तो एक ही उद्देश्य है कि अपनी पर्याय को सिद्धत्व प्रगट करने योग्य बनाना। उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति में बाधक मोहरागादि भाव का अभाव करने के लिये वह परद्रव्यों का स्वरूप समझकर, उनमें परत्वबुद्धि उत्पन्न कर, निर्भार होता है। और अपनी पर्याय की शुद्धि के लिये प्रयत्न करता है।
आत्मा का जानना तो वस्तुगत स्वभाव है इसलिये जाननक्रिया तो स्वाभाविक क्रिया है और उसका स्वभाव स्व-पर प्रकाशक है। ज्ञान में स्व संबंधी ज्ञेयाकार तथा परद्रव्यों संबंधी ज्ञेयाकार ज्ञान का ही परिणमन है अर्थात् ज्ञान ही दोनों के आकार रूप परिणमता है। ऐसी स्थिति में स्व अथवा पर दोनों में से श्रद्धा ने जिसको स्व माना हो, उस
ओर ही ज्ञानपर्याय झुक जाती है। स्व ज्ञेयाकारों की ओर झुकने से तो वीतरागता होती है और पर संबंधी ज्ञेयाकारों की ओर झुकते ही मोहरागादि के भाव होने लगते हैं। यह ही संसार उत्पत्ति का मूल कारण है। ध्रुव में स्वपने की श्रद्धा संसार के अभाव करने का मूल उपाय है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रस्वामी ने समयसार गाथा २ की टीका के अंतिम पैराग्राफ में उपरोक्त विषय का निम्नप्रकार विवेचन किया है -
"जब यह (जीव) सर्वपदार्थों के स्वभाव को प्रकाशित करने में समर्थ केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति का उदय होने से सर्व परद्रव्यों से छूटकर दर्शन-ज्ञान स्वभाव में नियत वृत्तिरूप