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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व श्रद्धा के साथ ऐसा ज्ञान वर्तने से, आत्मार्थी को स्वच्छन्दता (निश्चयाभासीपना) तो कभी उत्पन्न हो नहीं सकता। वरन् उसको तो संसार का किनारा दिखने लग जाता है। फलतः रुचि एवं पुरुषार्थ में तीव्रता और भी बढ़ जाती है और परिणति पर की ओर से सिमटकर तथा पर का आकर्षण घटकर, ध्रुव का आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। ऐसा परिणमन सहजरूप से होने लगता है। विकल्पों से नहीं वरन् उनसे तो कर्तृत्वबुद्धि के द्वारा मार्ग भ्रष्ट हो जाता है। उपरोक्त परिवर्तनों का मन-वचन-काय के साथ सहजरूप से निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने से परिवर्तन आये बिना नहीं रहता । फलत: श्रावकोचित क्रियाएँ सहजरूप से वर्तने लगती हैं।
सिद्ध भगवान का स्वरूप समझकर, अपने ध्रुव में सिद्धत्व को स्थापन करके, ध्रुव ही अपनापन स्थापना करने योग्य है, ऐसा अनेक तर्क-वितर्कों द्वारा निर्णय कर, श्रद्धा करने के कार्य में ज्ञान व्यस्त रहता है। इसप्रकार की खोजबीन के समय, कषाय तो सहजरूप से मंद रहती ही है, लेकिन आत्मार्थी का पुरुषार्थ ऐसी मंदता करने का नहीं होता। उसका उद्देश्य तो अस्तित्व के निर्णय का रहता है।
कुछ आत्मार्थी उपरोक्त कथन सुनकर, कषाय मंद करने में लग जाते हैं। वे इस सिद्धान्त को भूल जाते हैं कि श्रद्धा सम्यक् हुए बिना चारित्र गुण की शुद्धता प्रारंभ ही नहीं होती। श्रद्धाविहीन कषाय की मंदता तो कर्तृत्वबुद्धि पूर्वक, प्रयत्न करके करनी पड़ती है। और श्रद्धा के साथ अनंतानुबंधी की क्षीणता से जो कषाय मंद होती है, वह तो सहज ही होनेवाली मंदता है उसमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं होती। जैसे अनाज उत्पादन करने वाले किसान को घास तो सहज ही प्राप्त हुए बिना नहीं रहती।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
135 सिद्धत्व प्रगट करने का उपाय ?
उपरोक्त स्थिति समझकर आत्मार्थी श्री गुरु से पर्याय में भी सिद्धत्व प्रकट करने का मार्ग पूछता है।
श्रीगुरु उसे समयसार की गाथा २ की टीका में बताया मार्ग समझने का आदेश देते हैं (इस संबंध में विस्तार से चर्चा पूर्व में की जा चुकी है, वहाँ से जान लेना चाहिये) कि आत्मा का स्वभाव ही जानते हुए परिणमते रहने का है। और ज्ञान का स्वभाव स्व-पर के जानने का है। अत: निर्णय करने वाले ज्ञान को यह आवश्यक हो जाता है कि वह विश्व की समस्त वस्तुओं में से स्व और पर का विभागीकरण कर, श्रद्धा को समर्पित करे ताकि श्रद्धा स्व में अपनापन स्थापन कर सम्यक् हो सके । ज्ञान में बने ज्ञेयाकारों में से, अकेले ध्रुव को तो स्व के रूप में मानकर, उसके अतिरिक्त जो भी बाकी रह गये, वे सब पर रूप हैं - जानकर ज्ञान ने निर्णय किया।
ज्ञान के निर्णय का आधार यह रहा कि आत्मा तो अनंतकाल तक रहनेवाला नित्य स्वभावी है। अत: मेरा अस्तित्व नित्य है और ध्रुव भी नित्य है। अतः ध्रुव ही मैं हूँ। इसके अतिरिक्त जो भी रहे वे पर होने से उनके सम्बन्ध में विचारता है कि पर्याय तो अनित्य स्वभावी है, उसमें मेरा अस्तित्व है भी नहीं तथा हो सकता भी नहीं। मेरे से अन्य जितने भी द्रव्य हैं, वे तो मेरे से पर हैं ही, क्योंकि उनके द्रव्यगुण-पर्याय सभी उन-उन द्रव्यों के हैं। तथा उनके द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव उनके स्वयं के हैं। अत: वे स्वयं सत्ताधारी पदार्थ हैं। अत: उनमें तो किसी प्रकार भी मेरा अस्तित्व नहीं हो सकता आदि-आदि विचारों के द्वारा, ध्रुव में अपनापन मानने-जानने के साथ अन्य सबको पर जानकर, उनमें परपने की श्रद्धा कराने का कार्य भी ज्ञान के निर्णय से सहजरूप से हो गया।