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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व पुरुषार्थ को प्रोत्साहित करती रहती है। रुचि रहित अथवा अन्य कोई उद्देश्य की सिद्धि के लिये ग्रहण किया गया उपदेश, सम्यक्त्व सन्मुख जीव को देशनालब्धि नहीं बनती। पुरुषार्थ तो रुचि का अनुगामी है, जिधर के विषय की रुचि होगी, पुरुषार्थ उसी विषय को सफल करने के प्रति कार्यशील होगा। "रुचि अनुयायी वीर्य" के अनुसार।
देशनालब्धि का प्रारम्भ ही ध्रुव में सिद्धत्वकेस्थापनसे होता है।
जिस आत्मार्थी ने अपना ध्येय सिद्ध भगवान बनने का बनाया है। उस ध्येय को प्राप्त करने के लिये सिद्ध भगवान की प्रगट पर्याय में ऐसी कौन-सी विशेषताएँ हैं, जिनको मुझे प्रगट करके सिद्ध बनना है। सिद्ध भगवान की विशेषताओं के बाबत, पूर्व प्रकरणों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं तथा सुखी होने का उपाय भाग-५ के अनंतचतुष्टय वाले प्रकरण में की है, वहाँ से जान लेवें। तथा विशेष जानने के लिए प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन का रुचिपूर्वक अध्ययन करना चाहिये।
उक्त विशेषताओं को समझने से रुचि एवं पुरुषार्थ में उग्रता आ जावेगी, फलस्वरूप सिद्ध भगवान के प्रति सहजरूप से श्रद्धा जाग्रत हो जाने से, उनके बताये मार्ग के प्रति एवं वीतरागता प्राप्त करने में संलग्न गुरुओं के प्रति भी सहज ही श्रद्धा जाग्रत हो जावेगी। इसी को देव-शास्त्र-गुरु के प्रति श्रद्धारूप-व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है। ऐसी श्रद्धा सहजरूप से आत्मार्थी को वर्तने लगती है। ऐसी दशा का बिना प्रयत्न के सहजरूप से वर्तना ही, आत्मार्थी की अन्तरंग की आंशिक शुद्धि का प्रमाण है।
तत्पश्चात् सिद्ध भगवान बनने की मेरे में सामर्थ्य भी है या नहीं, इसका निर्णय करने के लिये अपने आत्मद्रव्य के, ध्रुव स्वभाव एवं पर्यायस्वभाव को समझने के लिये द्रव्य-गुण-पर्यायों के स्वरूप
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व एवं 'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्' एवं 'सत्द्रव्यलक्षणं' तथा 'गुणपर्यवद्रव्यं' आदि के सम्यक् अभ्यास के द्वारा पर्याय की अनित्यता एवं ध्रुव की नित्यता समझता है, जिनकी चर्चा जिनवाणी में विस्तार से उपलब्ध है। उनमें से आत्मार्थी उद्देश्य सफल करने के कारणभूत कथनों को रुचिपूर्वक ग्रहण करते हुए इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि सिद्धत्व तो अनादिअनंत मेरे ध्रुवतत्त्व में विराजमान है। अत: पर्याय में सिद्धत्व प्रगटकर मैं स्वयं सिद्ध बन सकता हूँ। इस निर्णय पर पहुँचते ही आत्मार्थी की रुचि एवं पुरुषार्थ और भी उग्र हो जाते हैं, और पर्याय में वृद्धि को प्राप्त शुद्धि के फलस्वरूप मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी में भी
आंशिक क्षीणता बढ़ जाती है। उसका अंश मन-वचन-काय की क्रियाओं में भी प्रगट होने लगता है, अब इसको सिद्धत्व प्राप्त करने के उपायों के समझने में रुचि बढ़ जाती है एवं उक्त मार्ग में बाधक मनवचन-काय के कार्यों में फंसने की रुचि में सहज कमी वर्तने लगती है।
ऐसा आत्मार्थी समयसार की प्रथम गाथा की टीका के अनुसार सिद्ध भगवान को ज्ञान में एवं सिद्धत्व को अपने ध्रुव भाव में स्थापन कर लेता है और ज्ञान में निर्णय करता है कि सिद्ध भगवान का सिद्धत्व अनंतकाल तक रहने वाला नित्य है और मेरा ध्रुव भी नित्य है, अत: उसमें रहनेवाला मेरा सिद्धत्व भी नित्य रहता है। इसप्रकार सिद्ध भगवान को एवं सिद्धत्वको अपने में स्थापन कर, विकल्पात्मक श्रद्धा में अपना अस्तित्व ही सिद्ध भगवान के समान निर्णय कर लेता है।
साथ ही आत्मार्थी को यह ज्ञान भी वर्तता रहता है कि सिद्धत्व का ध्रुव में अस्तित्व रहने पर भी उसका लाभ तो मेरी पर्याय में अंश मात्र भी नहीं आया; सिद्ध भगवान का सिद्धत्व तो उनकी पर्याय में प्रगट हो गया। लेकिन मुझे भी मेरी पर्याय को इस योग्य बनाना चाहिये; तब मुझे सिद्धत्व का लाभ प्राप्त होगा।