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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व न पर की उपेक्षा रूप कषाय की मंदता से और न मन-वचन-काय की किसी प्रकार की चेष्टा के द्वारा प्रगट हो सकेगा।
सम्यक् श्रद्धा के कारणभूत पुरुषार्थ
प्रश्न - तब श्रद्धा गुण की सम्यक्तता में किस प्रकार का पुरुषार्थ कारणभूत होगा ?
उत्तर - मोक्षमार्ग प्रकाशक में बताया है कि सम्यक्त्वसन्मुख जीव को पाँच लब्धियाँ होती हैं। इसलिये सर्व प्रथम सम्यक्त्व का • विषय समझने पर ही उसकी सन्मुखता हो सकती है। सम्यक् श्रद्धा का विषय है कि अनादि से जो पर को स्व मान रखा है, उसके परित्यागपूर्वक स्व को ही स्व (अपना) मानना । इसको ही प्राप्त करने का उद्देश्य- ध्येय नाकर, उसको प्राप्त करने के लिये रुचि एवं परिणति की उग्रतापूर्वक पुरुषार्थ का संलग्न होना ही, सम्यक्त्व की सन्मुखता है। जो आत्मार्थी, प्राप्त क्षयोपशमिक ज्ञान को अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिये लगावे / प्रेरित करे, वह क्षयोपशमलब्धि है। ऐसा होने पर, ऐसी रुचि जाग्रत होना कि मुझे सिद्ध भगवान बनना है। यह विशुद्धलब्धि के अन्तर्गत कषाय की मंदता के भाव हैं । अन्तरंग में ऐसी रुचि उत्पन्न होना ही वास्तव में सम्यक्त्व प्राप्त करने योग्य शुद्धि का बीज है। जिनवाणी का वाक्य है "रुचिमेव सम्यक्तं" अर्थात् "रुचि ही सम्यक्त्व है। " अर्थात् सिद्ध दशा प्राप्त करने की रुचि का उत्पन्न होना ही सम्यक्त्व का बीजारोपण है। जब यह बीजारोपण हो जाता है तो आत्मा का पुरुषार्थ भी उस ही के पल्लवित करने के लिए कार्यशील हो जाता है। शास्त्र
कहा भी है "रुचि अनुयायी वीर्य” अर्थात् पुरुषार्थ भी रुचि को आगे बढ़ने के लिये कार्य करता रहता है। रुचि सिद्ध भगवान बनने का मार्ग समझने के लिये प्रेरित करती है। फलतः रुचिपूर्वक गुरु उपदेश
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
सत्समागम, जिनवाणी का अध्ययन तथा चिन्तन-मनन के द्वारा सत्यार्थ मार्ग प्राप्त करने का पुरुषार्थ वह देशनालब्धि है।
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उपरोक्त विषय में यह ध्यान देने योग्य है कि क्षयोपशमलब्धि का कार्य तो ज्ञान की पर्याय है, उसमें शुद्धता का अंश प्रगट करने की क्षमता नहीं है । इसी प्रकार विशुद्धिलब्धि में मात्र कषाय की मंदता में भी शुद्धता प्रगट करने की क्षमता नहीं है, लेकिन साथ ही यदि वास्तविक रुचि का बीजारोपण हुआ तो शुद्धता प्रगट करने की क्षमता उस रुचि में है; क्योंकि रुचि का ध्येय सिद्ध भगवान बनना है व सिद्धस्वभावी ध्रुव तत्त्व में अपनापन स्थापन करना है। ऐसी रुचि जाग्रत होते ही मिथ्यात्व का रस आंशिक क्षीण होता जाता है (मंद नहीं, मिथ्यात्व की मंदता का मोक्षमार्ग में कोई मूल्य नहीं है) तथा साथ ही पर में अपनापन ढीला होने से, परिणति को आकर्षित करने वाली अनन्तानुबंधी कषाय भी आंशिक क्षीण होती जाती है। इसी दशा का नाम आत्मा में शुद्धि का अंश (गर्मित शुद्धता) प्रगट होना है। जैसेजैसे रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, तदनुसार ही शुद्धि के अंश भी बढ़ते जाते हैं। ऐसी रुचि के साथ जो आत्मा सिद्ध भगवान बनने का मार्ग समझने का पुरुषार्थ करता है, उसी को देशनालब्धि कहा है। उसके समझने का विषय सिद्ध भगवान का स्वरूप एवं मेरे ध्रुव में ऐसा क्या आकर्षण है, जिससे कि उसमें मेरापन हो जावे यह समझना होता है। देशना के काल में इसके अतिरिक्त विषय तो अनेक आवेंगे, उनमें
आत्मार्थी मात्र ध्येय को प्राप्त कराने वाले उपदेशों को तो रुचिपूर्वक ग्रहण करता जाता है, बाकी के अन्य विषय, रुचि के अभाव के कारण स्वतः गौण रह जाते हैं।
इसप्रकार उद्देश्य की पूर्ति के लिये रुचि अत्यन्त जाग्रत रहती है । रुचि के साथ ग्रहण की हुई देशना उद्देश्य सफल करने के लिये